पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद
पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल
फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत
है। आज
आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार महेन्द्र सिंह 'राज' की एक कविता जिसका
शीर्षक है “वास्तविक सुख”:
मैं दर्द को पीना
सीख लिया
तेरे बिन जीना सीख लिया
बीते दिन की बिसरी यादों के
सहारे ही जीना सीख लिया
जीवन का बीत गया
मधु मास
अब करना है किससे आस
ना होता स्तुत्य ढलता सूरज
ढंक लेता उसको तम का रज
जीवन की सन्ध्या
बेला आई
निज संग-संग तन्हाई लाई
पर मन पागल ये ना समझे
बस प्यार की बातों में उलझे।
पर कोई
इसे समझाए तो
जीवन का मूल बताए तो
कबतक भटकेगा इस जग में
इधर उधर भ्रान्तिमय मग में।
जीवन में कुछ
पुण्य कमाना है
लौकिक सुख मात्रा बहाना है
जो जीवन का मूल समझते हैं
इह सुख को धूल समझते हैं।
असली सुख है
भक्ति रस में
भरना है सद्भक्ति नस नस में
अन्तिम आयाम को पाना है
निज जीवन सफल बनाना है
तेरे बिन जीना सीख लिया
बीते दिन की बिसरी यादों के
सहारे ही जीना सीख लिया
अब करना है किससे आस
ना होता स्तुत्य ढलता सूरज
ढंक लेता उसको तम का रज
निज संग-संग तन्हाई लाई
पर मन पागल ये ना समझे
बस प्यार की बातों में उलझे।
जीवन का मूल बताए तो
कबतक भटकेगा इस जग में
इधर उधर भ्रान्तिमय मग में।
लौकिक सुख मात्रा बहाना है
जो जीवन का मूल समझते हैं
इह सुख को धूल समझते हैं।
भरना है सद्भक्ति नस नस में
अन्तिम आयाम को पाना है
निज जीवन सफल बनाना है