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कहानी: चाँद का दीदार (रंजना बरियार, मोराबादी, राँची, झारखंड)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रंजना बरियार की एक कहानी  जिसका शीर्षक है “चाँद का दीदार":
 

करवा चौथ के मात्र तीन दिन ही शेष हैं।अवन्तिका ज़ोर शोर से तैयारियों में लगी है। उसकी बेटी आशी का ये पहला करवा चौथ है... दिल के सारे अरमान उड़ेल देना चाहती है! उसकी सासु माँ ने भी शौक़ से सरगी भेजी है.. वहाँ तो बस एकलौती बहु है वो! बाज़ार में मनपसंद कलश मिले नहीं, सो उसने सादा ही ख़रीद लाया है..पेंटिंग के सामान , मिरर, फेबीकोल वग़ैरह लेकर बैठी है.. लीन है कलश सजाने में!".. मम्मा क्या कर रही हो? इस बार दो कलश क्यूँ लाया है?" आशी अवंतिका से पूछती है! " बेटा, तेरा पहला करवा चौथ है न..सो मैंने सादा ही कलश ले आया,उसे सजा रही हूँ। बाज़ार में अच्छे कलश नहीं मिल रहे इस बार!" "मम्मा मैं क्यूँ करूँ करवाचौथ, अमन तो रहेगा नहीं इस बार?"आशी ने कहा । "नहीं  बेटे, ऐसा नहीं कहते.. तुम्हारी सासु माँ ने शौक़ से सरगी भेजी है,अमन नहीं रह पाएगा, फिर भी तुम्हें करना है!कहते हैं पति जल पिलाकर व्रत खोलता है, वो कौन करेगा? आशी ने फ़ॉरन  जवाब दिया।"नहीं बेटे देख, तेरे पापा तो कितने दिनों से नहीं रह रहे, तब भी मैं करती हूँ न!" बोलते ही अवन्तिका की आँखें भर आयीं..! आशी ने कहा ठीक है मॉम, आप जैसा कहोगी मैं करूँगी.. पर आप रोना नहीं.. मैं तुम्हें रोते नहीं देख सकती!
                               अवन्तिका काम छोड़ अपने कमरे में चली जाती है..आशी भी पीछे पीछे.. क्या हुआ मम्मा? कोई पहली बार तो नहीं, पापा को तो कभी करवाचौथ में रहने का मौक़ा नहीं मिलता.. आप तो हमेशा अकेले ही करती हो, फिर क्यूँ भावुक हो रही हो?”नहीं बेटे कुछ नहीं तुम जाओ,मैं आराम कर लूँ थोड़ा । ठीक है.. कह कर आशी अपने कमरे में चली जाती है।अवन्तिका मात्र परम्परा निवाहने हेतु व्रत नहीं करती... उसे लगता है, जिसे पति माना है उसकी लम्बी उम्र हो..
वो उसके पास न भी रहे तब भी उसकी यही कामना है.. या हो सके जीवन के अंतिम पड़ाव पे शायद उसकी ज़रूरत महसूस करे तो आ जाए... तब भी उसे वो गले लगाएगी.. पुरानी कोई बात आड़े नहीं आने देगी..! ये सब सोचते उसकी आँख लग जाती है ।
                अवन्तिका की जब शादी हुई थी तब उसके पति विजय हाउस जॉब कर रहे थे। एक साल बाद आशी आ गयी थी।एक दूसरे की आँखों में देखते ही इनके समय बीतते थे।बेटी आ गई तो लगा कि इनके बीच गुलाब खिल गया.. सौरभ से सराबोर, मदहोश होती इन तीनों की दुनिया एक गोलम्बर में सिमट कर रह गयी थी!आँटी अक्सर कहतीं.." मेरी बेटी को किसी की नज़र न लगे!" कहकर अपनी आँखों का काजल उसकी कान के पीछे लगा देतीं!..फिर क़रीब एक वर्ष बाद अचानक विजय को एम.आर.सी.पी.करने के लिए लन्दन जाने की स्थिति बनने लगी.. पर उसने कहा "मैं नहीं जाउँगा....तुमलोग मेरे बग़ैर कैसे रहोगी?.. फिर मेरे पास उतने पैसे भी नहीं हैं!" अवन्तिका ने कहा " हमलोग रह लेंगे, थोड़े ही दिनों की तो बात है! जहाँ तक पैसों की बात है, मैं पापा से बात करूँगी ।"
         विजय लन्दन चला गया।उसके गए छब्बीस साल हो गये..इस बीच वो दो तीन वर्ष में एक बार आता है..पर कभी करवा चौथ में नहीं आता... बेटी को जी जान से प्यार करता.. माँ पिताजी, सास ससुर के लिए तोहफ़े लाता, पत्नी के लिए भी तोहफ़े लाता... सभी खुश रहते... "मेरे पापा जैसा कोई नहीं " बेटी कहती। माँ बाप बेटे की तरक़्क़ी से फूले नहीं समाते। सास ससुर को भी अपने निर्णय पे फ़ख़्र होता!...बस एक अवन्तिका के चेहरे पे वो बात नहीं होती.. जो शादी के समय हुआ करती थी! सब सोचते पति इतने दिनों बाद आया है.. शायद ये उसकी नज़ाकत हो! छ: महीने पहले ही तो बेटी की शादी में विजय आया था, बहुत धूमधाम से उसने शादी करवायी थी.. लड़का भी उसने स्वयं ही ढूँढा था, वो मर्चेंट नेवी में 2nd officer के पद पे कार्यरत है।बहुत संतुष्ट था वो बेटी की शादी कर के!अवन्तिका और उसके परिवार को पैसे की कोई कमी नहीं होने देता... मानो वो अपने यहाँ नहीं रहने की भारपायी पैसों से करना चाहता हो।
                     अंतरंग सहेली होने की वजह से मुझे अवन्तिका का उदास चेहरा बहुत सालता, मानो सब कुछ होने के बावजूद उसकी ज़िंदगी से किसी ने रंग चुरा लिया हो! एक दिन मैंने उससे बड़ी मिन्नतें की... तब उसने जो बताया, मेरे पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गयी! " मीरा, मेरे और विजय के बीच कुछ भी नहीं है..वो मेरे कमरे में रात बिताता है..,प्रेम निवेदन करता है...पति का अधिकार माँगता है....मैं दे भी देती हूँ...पर वो प्रेम क़तई नहीं होता..ऐसा लगता प्रेम जैसी कोई चीज़ मुझे भिक्षा में दी जा रही है.. लगता मैं धक्के देकर भाग जाऊँ... पर मेरे हाथ पैर कटे हुए हैं!" "क्यूँ अवन्तिका,क्यूँ तुम्हारे हाथ पैर कटे हैं " मैंने पूछा," क्यूँ कि बीस वर्षों से विजय वहाँ की किसी डॉक्टर के साथ लिव इन में रहता है... ये बात घर में कोई नहीं जानता, मैं हल्ला करूँगी तो इसकी बदनामी होगी... और सबों को बहुत दुख होगा! वो कहता है पॉमेला को तुमसे कोई परेशानी नहीं है, फिर तुम्हें क्यों? मैं क्या करूँ...मैंने तो समझौता किया ही है पर जब वो मुझे स्पर्श करता है तो मैं अपने पति को महसूस नहीं कर पाती.. मुझे लगता हमारे बीच पॉमेला है... ये व्यक्ति मेरा पति नहीं हो सकता!..तुम्हीं बताओ कैसे किसी और को मैं अपना पति मान लूँ" कहते कहते वो फूट फूट कर रोने लगी! मैंने गले लगा कर उसकी पीठ पे हाथ फेरा... पर उसका दुख तो कोई नहीं हर सकता!
                               अवन्तिका और आशी दोनों ने धूमधाम से करवाचौथ की पूजा की.. चलनी में चाँद का दीदार किया..आशी को अमन का चेहरा दिखा... अवन्तिका ने 'अपने पति' विजय को देखा!