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कविता: मन (संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया, भोपाल, मध्यप्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मन”:
 
सकल मानव अंतस ।
विधमान होता मन ।
मन अति लघु नन्हा ।
चंचल बालक सम ।
मानव मन मुख मौन ।
 
परन्तु मन निरंतर ।
द्रुत गति वाचाल ।
मन उपजता भाव ।
विचार  शीघ्र अति शीघ्र ।
उछलता - कूदता ।
 
कभी - कभी मन लोभ,
अहंकार, क्रोध वशीभूत हो ।
 
त्रुटि पूर्ण कर्म कर स्व ।
संतापित हो ओरो को ।
पीड़ित कर वेदना ।
 
सर, सरिता डूबता - उतरता ।
कभी मन उमंग,
उत्साह संग ।
सुकर्म कर सुगंधयुक्त ।
सुमन खिला हर्षाता ।
 
मन को समझाना ।
सुकर्म करो सदा ।
दुष्कर्म परित्याग कर ।
मन को सुंदर भावो से ।
सजा श्रृंगार कर ।
उर को सुविचार से ।
शोभायमान करना ।