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आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार मौसमी चन्द्रा की एक कहानी जिसका शीर्षक है “गुड़िया":
"सावित्री... कहाँ हो? देख लो सब सामान लाया हूँ या नहीं!"
वर्मा जी ने थैला किचन में रखते हुए कहा।
"देखती हूँ रुक जाओ जरा।बड़िया डाली है तेल
में।इनको निकालने दो। कढ़ी बना रही हूं।पूजा को बहुत पसंद हैं।जब भी आती थी, जबरदस्ती बनवाती थी।पता नहीं कितने दिनों से मेरी बच्ची ने ठीक से खाया भी
होगा या नहीं"।
बोलते बोलते रो पड़ी,आँचल का सिरा मुंह में दबा लिया।"
"धैर्य से काम लो सावित्री।तुम ऐसे रोओगी तो उसे
कौन संभालेगा?दामाद जी को गुजरे एक महीना होने को आया।जब
हमारे आंसू नहीं छूटे
तो सोचो हमारी बेटी का क्या हाल होगा..?अथाह लगता होगा उसे।बीच मंझधार में छोड़ कर गए हैं दामाद जी।कैसे संभालेगी खुद को और राशु को?मात्र पन्द्रह वर्ष का बच्चा!जिसके सर से पिता का साया उठ गया।दोनों को हिम्मत देने के लिए हमें हिम्मत रखनी है सावित्री"!
फूटफूट कर रो पड़े वो।अंदर जमा दर्द बेटी के आने से पहले निकाल देना चाहते थे।
ये पहला मौका
था।जब पूजा अकेली आयी।नितेश के रहते कभी ऐसा नहीं हुआ।कितना खुश रखता था वो पूजा
को,पर भाग्य का लिखा कौन मिटा सकता है।
तीन दिन रही
पूजा।लेकिन पत्थर की मूरत जैसे।पथराई आँखे, सूखे ओंठ!
जब जाने लगी तो
समान के साथ एक पैकेट में कुछ लपेटा हुआ था।
"ये क्या है माँ"?
"खोल कर देख ले"।
पूजा ने जैसे ही
पैकेट खोला-एक पुरानी गुड़िया!
"ये तो..! मेरी गुड़िया है माँ, जिससे मैं बचपन में खेलती थी"।
"हाँ बेटा तेरी ही गुड़िया है।तुझे याद है जब मैं
इसे लायी थी।बिल्कुल दुल्हन जैसे लाल साड़ी, जेवर पहने साथ में सजा
धजा गुड्डा भी था"।
"हाँ...याद है, लेकिन... बुआ की शादी के समय वो गुड्डा खो गया था"।
"सही कहा तुमने।सबने कहा दुल्हन अकेली हो गयी,दूसरा गुड्डा लाना होगा।है न"?
"हां..."
"फिर तुमने क्या किया था? बता मुझे"!
"मैंने उसके दुल्हन के कपड़े उतार कर टीचर के कपड़े पहना दिए
और कहा अब से मेरी गुड़िया दुल्हन नहीं टीचर है।अपने पैरों पर खड़ी है।उसे दूसरा
गुड्डा नहीं चाहिए"।
बोलते-बोलते वो
रोने लगी।
"मैं समझ गयी माँ। आप क्या कहना चाहती हैं। आपकी गुड़िया भी अपने पैरों पर खड़ी
होकर दिखायेगी। सब संभालेगी। आप साथ दोगी न मेरा"?
हाँ बेटा हमेशा दूँगी.. कहकर सावित्री ने अपनी गुड़िया को सीने से लगा लिया।