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कविता: माँ के हाथों की रोटी (रविकान्त सनाढ्य, भीलवाड़ा, राजस्थान)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रविकान्त सनाढ्य की एक कविता  जिसका शीर्षक है “माँ के हाथों की रोटी”:

माँ के हाथों की रोटी का
स्वाद निराला होता है ।
 
जितने भी व्यंजन हैं जग
में उनसे आला होता है ।
 
घुला हुआ वात्सल्य-स्नेह
औ ममत्व सादी रोटी मे।
 
जब दुलार से खिलवाए
रस आता सूखी रोटी में ।
 
छाछ-प्याज हो, सब्ज़ी भी न
गुड़ से भी भा जाती है ।
 
माँ के हाथों की रोटी की
ख़ुशबू  खींच बुलाती है ।
 
नहीं अपेक्षित तेरह तेवन,
सिर्फ़ दूध संग रस मिलता ।
 
माँ परोसती बड़े प्यार से
रोटी में बस सुख मिलता ।
 
सारे ही व्यापार क्रिया के
माँ की रोटी पर हलके हैं ।
 
नरम-नरम हों गरम हों रूखे,
माँ के फुलके- फुलके हैं ।
 
अगर स्नेह से कौर हमारे
मुख में जो दे देती है ।
 
तो समझो यह बड़ा भाग है
और अमोलक थाती है ।
 
माँ की रोटी अमिय भरी है,
स्वार्गिक सुख की जननी है ।
 
दुनिया में दुर्लभ माँ-रोटी
सब चीज़ों से वज़नी है ।
 
मैं माँ के आँचल में नित ही
यह सौभाग्य मनाता हूँ ।

माँ के साथ ही नित्य बैठकर
भोजन-प्रसाद को पाता हूँ ।

मक्का-रोटीऔर राबड़ी
माँ से ही बनवाता हूँ ।

अरेढोकले हों या साजा,
स्वाद बहुत आ जाता है ।

इन सबमें है निपुणहस्त वह
आनंद ही आ जाता है ।

हे ईश्वर मैं शुक्र मनाता,
माँ का मुझ पै साया है ।

माँ का जादू रहे सलामत,
यह तेरी ही माया है ।
 
जब तक माँ है, माँ की रोटी
सब चीज़ों पर भारी है ।
 
माँ की रोटी, माँ की रोटी
मुझको बेहद प्यारी है ।।