पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार आदिवासी सुरेश मीणा की एक कविता जिसका
शीर्षक है “तुम थे, तुम हो, और रहोगे”:
तुम थे, तुम हो, और रहोगे
पर ये सुनो !
बोहत सी बातें जो
कहनी है तुमसे,
पर अब शायद कभी ठीक से कह भी नहीं पाएंगे,
जज़्बात ज़िंदा है
बिल्कुल पहले की तरह
पर अब जता नहीं पाएंगे,
वही तुम्हारी
पुरानी बातें दोहराएंगे खुद से
मगर अब तुझसे दोबारा बात करने नहीं आएंगे,
खुश तो रहेंगे
तेरे सामने भी, तेरे बगैर भी
पर खुश नज़र नहीं आयेंगे,
हर सितम से अकेले
ही गुज़र जाएंगे
पर तुझे कभी आवाज़ नहीं लगाएंगे ,
यादों में बसा के
रखेंगे तुझे
अब कभी तेरे साथ सपने नहीं सजाएँगे,
चुप - चाप
तेरे जानिब से होकर गुज़र जाएँगे,
पर सर उठा कर तुम्हारी तरफ नहीं देखेंगे,
हाँ,
हर मंदिर मस्ज़िद जाएंगे
और खूब सारी दुआंए तेरे लिए मांग लेंगे
बस अब तुझे अपने लिए नहीं माँगेंगे,
एक बंजारा बनकर
अपनी पूरी ज़िन्दगी,
यूँही गुज़ार देंगे,
पर तेरे घर का आसमान छीन कर
हम अपने घर का छत नहीं बनाएंगे,
चाहे नज़रे तुझे
देखने को तरस क्यों न जाए
मुसलसल तुझे ढूंढ़ते फिरेंगे
पर तेरे नए घर का पता किसी से नहीं पूछेंगे।
पर ये सुनो !
पर अब शायद कभी ठीक से कह भी नहीं पाएंगे,
पर अब जता नहीं पाएंगे,
मगर अब तुझसे दोबारा बात करने नहीं आएंगे,
पर खुश नज़र नहीं आयेंगे,
पर तुझे कभी आवाज़ नहीं लगाएंगे ,
अब कभी तेरे साथ सपने नहीं सजाएँगे,
पर सर उठा कर तुम्हारी तरफ नहीं देखेंगे,
हर मंदिर मस्ज़िद जाएंगे
और खूब सारी दुआंए तेरे लिए मांग लेंगे
बस अब तुझे अपने लिए नहीं माँगेंगे,
यूँही गुज़ार देंगे,
पर तेरे घर का आसमान छीन कर
हम अपने घर का छत नहीं बनाएंगे,
मुसलसल तुझे ढूंढ़ते फिरेंगे
पर तेरे नए घर का पता किसी से नहीं पूछेंगे।