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कहानी: पूर्णाहूति (वंदना तिवारी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार वंदना तिवारी की एक कहानी  जिसका शीर्षक है “पूर्णाहूति":

        सुरेखा जल्दी-जल्दी सूटकेस में सामान रखने में व्यस् त थी।समय और आवश्यकता के अनुसार चुनी गई कुछ साडि़याँ। उनके  साथ ब्लाउज़ के सेट, सूट के साथ मैचिंग दुपट्टे। दो -तीन चूडि़यों के सेट, कुछ रुमालें और रोज़मर्रा के जरुरत की ऐसी चीजें जिनकी उपस्थिति जीवन में अनिवार्यतः होनी ही चाहिए। इनमें भी सबसे अधिक संभालकर रखे गए उसके सारे सर्टिफिकेट्स, मार्कशीट्स और नौकरी के लिए आया कॉल लेटर।        इन व्यस्तताओं के बीच उसने कई बार मणि की ओर बेपरवाही से देखा और फिर व्यस्त हो गई। सोफे पर स्थिर बैठा मणि उसे एक टक ऐसे देख रहा था मानो बहुत कुछ कहना चाह रहा हो, लेकिन उसके शब्द किसी अथाह सागर में डूबते जा रहे हों। उधर सुरेखा थी कि उसकी ओर स्थिर होकर ताक भी नहीं थी ; मानो जताना चाह रही हो कि तुमने मुझे कब सुना था, जो आज मैं तुम्हारे उद्गारों को समेट लूँ ? जब मैं तुम्हें अपने पास रोकना चाहती थी ,तब तुम हाथ छुड़ाकर चले जाते थे। जब मैं तुमसे कुछ कहने का प्रयास करती, तब तुम्हारे लिए मेरी बातें सुनना जरुरी नहीं होता था क्योंकि तुम्हारे अनुसार मैं बेमतलब की बातें ही तो करती थी। फिर एक अहंकारी पुरुष मेरी निःसार बातों में रस क्यों ले पाता ?       ओह! मैंने क्या-क्या कहना चाहा था तुमसे मणि। क्या एक पति का इतना भी कर्तव्य न था, कि वह अर्धांगिनी कही जाने वाली अपनी पत्नी के मनोभावों को समझना तो दूर ; सुन भी न सके ।     

         मुझे आज भी याद है मणि, जब मैं ब्याह कर प्रथम दिवस तुम्हारे घर आई थी । ससुराल में पदार्पण करने के पश्चात् नई दुल्हन को देखने वालों के उत्साह ने मुझे क्षण भर भी वि़श्राम नहीं लेने नहीं दिया था। हाँ, तुमने आते ही सोकर  अपनी थकान उतार ली थी, लेकिन मैं भारी बनारसी साड़ी के बोझ तले दुल्हन बनी बैठी रही ।      

 रात में जब सब सो गए तब मैं आधी रात कमरे में अकेली बैठी तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही थी। मेरे मन में कितने भाव उद्वेलित हो रहे थे। मैं चाहती थी कि अपने मन के सारे द्वार खोल दूँ और तुम एक प्रेमाकुल भ्रमर के समान मेरे हृदय -कमल के कोष में बंद सारे भाव पढ़ लो। सारी नींद, सारी थकान भुलाकर मैं तुमसे रात भर बातें करती रहूँ। हृदय के पट खुलते रहें और भावनाएँ गुँथती चली जाएँ।     

     लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुमने आते ही कमरे के कपाट क्या बंद किए मेरे मन के द्वार पर मानो ताला लगा दिया। तुमने आते ही मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया था। और फिर ...ज्यों-ज्यों चूडि़यों, गहनों ....का बोझ  कम होता गया त्यों-त्यों मेरे व्याकुल हृदय का भार और-और बढ़ता चला गया। उसके बाद तो सपनें ,कल्पनाएँ ,चाहनाएँ ,भावनाएँ ; न जाने क्या क्या मेरे भीतर ही भीतर टूटता रहा। मेरा तो जैसे संपूर्ण अस्तित्व अस्त -व्यस्त हो गया , जिसे मैं आज तक नहीं समेट पाई।      

  मिलन की प्रथम रात्रि की मधुर बेला में तुम्हारे द्वारा पूछा गया वह क्रूर प्रश्न क्या मैं कभी भूल पाऊँगी मणि ? तुम्हारे निर्दय शब्द आज भी मेरे हृदय को दग्ध करते हैं । कितनी निष्ठुरता से तुमने मेरे स्त्रीत्व पर प्रश्न उठाया था-’’क्या इसके पहले तुम्हारा किसी से ........।‘‘छिः मैं कैसे दोहराऊँ तुम्हारे वे घृणित शब्द ? मैं अवाक सी तुम्हें देखती रह गई थी। तब तुमनें और दृढ़ता से कहा था - ’’आज कल कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के -लड़कियों के लिए सामान्य सी बात है। मैं बुरा नहीं मानूँगा ।‘‘ तुंम्हारे द्वारा मेरे चरित्र पर उछाले गए उन छीटों से मैं आज भी स्वयं को कलुषित सा महसूस करती हूँ मणि ।    

 सोचते -सोचते उसके सारे घाव हरे हो उठे थे। सुरेखा की डबडबाई आँखों से कुछ बूँदें छलक पड़ीं । तभी मणि ने उसका हाथ पकड़ लिया ,’’रो रही हो ? फिर क्यों जा रही हो ? मुझे पता है तुम मेरे बिना नहीं रह पाओगी। "     "चलो आज तुम्हें मेरा रोना तो दिखाई दिया। पर उसके पीछे का कारण तुम आज भी नहीं समझ पाए।" सोचते हुए सुरेखा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर व्यस्त हो गई ।      

 तुम समझ भी कैसे सकते थे मणि क्योंकि तुमने तो मुझे कभी पत्नी का स्थान दिया ही नहीं । तुम्हारे लिए तो मैं मात्र एक उपभोग की वस्तु ही थी । इसके अतिरिक्त तो तुमने मेरे अस्तित्व को किसी अन्य रुप में स्वीकारा ही नहीं ।मैंने बहुत चाहा था कि तुम्हारे साथ मैं कुछ क्षण शांति से बिता पाती । कुछ तुम अपने मन की कहते कुछ मैं कहती । मनुष्य एक दूसरे के भावों को तो तभी समझ सकता है जब वह उसे सुने और समझे । धरती तभी नम होती है जब जल की बूँदें उसे सिंचित करती हैं । जल के स्नेहिल स्पर्श से ही भाव पूरित हो धरा में प्रेममयी बीज अंकुरित होते हैं । अन्यथा कोई कितना ही उस पर हल चलाता रहे सब वृथा है।        ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं चाहते थे। जब तुम्हें एक स्त्री की आवश्यकता होती थी , तुम मेरे पास ही आते थे । अपनी लालसा को तृप्त कर फिर मुझे अकेली छोड़ कर चले जाते थे । मेरे हृदय तक पहुँचने का प्रयास तो तुमने कभी किया ही नहीं । और मैं थी कि अब तक अपने उर - पट खोले, द्वार  की ओर ही निहारती रह गई ।      

    कई बार तो मैं तुम्हारे हाथ कस कर पकड़ लेती थी । तुमसे अनुनय - विनय करती कि कुछ क्षण मेरे निकट बैठ कर उस प्रेम को महसूस कर लेने दो जो मेरे हृदय को तुम्हारे साथ जोड़ सके । मगर तुम्हें मेरी भावनाओं से क्या प्रयोजन था ? मेरे लिए प्रेम एक अमूर्त भाव था ,एक ऐसी डोर जो दो प्राणों को जन्मांतरों के लिए बाँध लेते हैं । पर कदाचित तुम्हारे लिए प्रेम की परिभाषा कुछ और ही थी , तभी तो तुम बड़ी निष्ठुरता से मेरा हाथ छुड़ाकर चले जाया करते थे ।     "आखिर तुम्हें किस बात ही कमी है यहाँ ?  क्या तुम्हें वास्तव में नौकरी की आवश्यकता है ? वह भी इतनी दूर जाकर ! अकेली रह पाओगी ? " मणि के शब्दों ने सुरेखा की तंद्रा तोड़ी थी । वह कुछ क्षणों के लिए मणि की ओर देखती रही । बिना कुछ कहे , एकटक । सुरेखा मानो उन्हीं शब्दों की डोर थामे हुए कहीं डूबी चली जा रही थी ।       

यह तुम्हारे लिए मात्र एक नौकरी होगी मणि । मेरे लिए तो तुम्हारे कारागार से मुक्त होकर स्वच्छंद हवा में श्वास लेने का एक माध्यम है । अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान को पददलित कर तुम्हारी दी हुई सुख सुविधाओं का भोग अब मेरे लिए असह्य हो गया है ।         मैं कैसे भूल सकती हूँ वह कलुषित दिन जब तुमने मेरी आत्मा को खंड - खंड कर डाला था। मेरे अंतर्भावों को तुमने पूरे परिवार के समक्ष ऐसे उद्घाटित किया था जैसे दरिंदा किसी शालीन कन्या को निर्वसना करता हो। मैं वह क्षण कैसे भूल सकती हूँ मणि । मेरा अपराध मात्र इतना था कि जब तुम मेरी कोई बात सुनने - समझने को तैयार न थे मैंने अपनी भावनाओं को तुम तक पहुँचाने के लिए पत्र को माध्यम बनाया था । अपने भाव के मोती शब्दों की डोर में पिरोकर तुम्हें सौंप दिया था । यही मेरी भूल थी । सोचा था इसे पढ़कर ही कदाचित किसी सीमा तक तुम मुझे समझ पाओगे । किंतु नहीं, तुम तो पूर्णतः संवेदनाशून्य थे।इसीलिए तो तुमने उस पत्र में लिखे एक -एक शब्द को सबके समक्ष उद्घाटित कर मेरा मज़ाक उड़ाया था । तुम्हारे मुख से उच्चारित प्रत्येक शब्द मेरी आत्मा का चीर हरण और तुम्हारी विकृत मानसिकता का साक्षात्कार था । घर में गूँजते अट्ठहास से मेरा हृदय चीत्कार कर उठा था। उस दिन मैं टूट कर ऐसी बिखरी कि आज तक मैं स्वयं को समेटने का उद्यम ही कर रही हूँ ।      

शायद राख के ढेर में कहीं एक चिंगारी शेष थी । बस , मन में एक निश्चय किया था -‘‘ अब मुक्ति चाहिए।’’ और इसके लिए मुझे स्वयं को स्थापित करना ही होगा । एक नारी का स्नेह - सिंचित हृदय जितना कोमल होता और विनम्र होता है , तिरस्कार और अपमान उसे उतना ही निष्ठुर और कठोर भी बना देता है ।      

 अब मणि ने अपना अंतिम प्रयास किया । उसने सुरेखा को कस कर भींच लिया - ‘‘ सोच लो - बस एक बार - मेरे लिए - इतना आसान नहीं होगा ।’’   

   ‘‘ आसान  तो कुछ भी नहीं होता । अपने माता -पिता और परिजनों को छोड़ कर किसी अजनबी को पति मानकर उसके साथ चल पड़ना कौन सा आसान होता है ? ’’ सुरेखा ने प्रश्नपूर्ण दृष्टि से मणि की ओर देखा था। जीवन के एक नए सफर पर चल पड़ने की दृढ़ता उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी ।     ‘‘  तो तुम नहीं मानोगी ?’’    

‘‘नहीं । ’’   

‘‘ नहीं रुकोगी ?’’   

‘‘ नहीं । ’’  

 ‘‘ एक बार फिर सोच लो । ’’    ‘‘ नहीं । ’’  

 सुरेखा ने अपने अपने वैवाहिक जीवन की यज्ञ - वेदी में आज तक जितनी आहूतियाँ दी थीं , आज उसकी पूर्णाहूति देने का समय था । सुरेखा इसके लिए पूरी तरह तैयार थी । मणि के बाहुपाश से छूटते ही सूटकेस उठाया और दृढ़ता के साथ बाहर निकल गई ।