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कहानी: आँखिन देखी (राधा गोयल, विकासपुरी, नई दिल्ली)


 पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राधा गोयल की एक कहानी  जिसका शीर्षक है “आँखिन देखी":


कश्मीर यात्रा का एक बेहद खट्टा यादगार संस्मरण 
 
 
     2/4/2005 को हम श्रीनगर  घूमने के लिए गए।उन दिनों अटल बिहारी वाजपेई जी ने लाहौर बस सेवा शुरू की थी। हमने सोचा था कि उसके कारण श्रीनगर में माहौल बहुत ही अच्छा होगा क्योंकि सभी लोग अपनों से मिलने के लिए तड़प रहे होंगे। लाहौर बस में भारत के लोग लाहौर जाऐंगे और लाहौर के लोग भारत मिलने के लिए आऐंगे और अपनों से मिलकर बहुत सुकून का अनुभव करेंगे लेकिन वहाँ तो नज़ारा कुछ और ही था।वहाँ सात दिनों तक लगातार हड़ताल रही।  कोई भी दुकान खुली हुई नहीं थी, केवल कुछ दुकानों के... जो बहुत प्रसिद्ध थीं। शुक्र है कि हमारे यहाँ एक किरायेदार कश्मीर से विस्थापित होकर आए थे। उनका कश्मीर में घर था लेकिन वहाँ के हालातों को देखते हुए घर बार छोड़कर दिल्ली आ गये थे और दो साल से हमारे मकान में रह रहे थे। उनके कुछ जान पहचान के लोग श्रीनगर में थे, जिनके वहाँ पर होटल थे। उनमें से एक का हमें नंबर दिया था। फोन पर बातचीत भी हो गई थी।
    हम वायुयान से गये थे और सीधे लालचौक स्थित होटल पाईन में ठहरे जो किसी कश्मीरी पंडित मिस्टर कौल व अब्दुल राशिद का था।प्रतिदिन का किराया 500 रूपये था, जिसमें नाश्ता, चाय या खाना शामिल नहीं था।कुछ निम्न ढ़ाबे टूरिस्ट सैण्टर के पास थे
 
कृष्णा वैष्नो ढ़ाबा
रतन पंजाबी ढ़ाबा
न्यू इण्डिया रेस्तराँ 
 
टूरिस्ट सैण्टर के पास लगी रेहड़ी पर आलू के परांठे का नाश्ता तो रोज ही करते थे।सुबह की चाय अपने होटल में ही पी लेते थे।
 
     श्रीनगर घूमने के लिये SRTC से रोज बस चलती हैं। 
Manager Tourist Services J&K SRTC, (Tourist reception Center Srinagar)
J&K स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन की डीलक्स बस से 5/4/2005 को श्रीनगर से पहलगाँव गये।प्रति यात्री 145 रुपये का टिकिट था।उसके बाद अनन्तनाग,गुलमर्ग
      गुलमर्ग में हिंडोले का लुत्फ भी उठाया।आठ मिनट आने जाने में लगते हैं। उस समय प्रति यात्री किराया 150 रूपये था।
 
मानसबल लेक
खीरभवानी मन्दिर 
शंकराचार्य मन्दिर
निशात व शालीमार
हजरतबल देखा।
 
8/5/2005
Department of Floriculture की बस द्वारा मुगलगार्डन व चश्मेशाही देखा किराया पाँच रुपये प्रति व्यक्ति था
 
      लाल चौक के पास ही डल झील है जिसमें खूबसूरत शिकारे चलते हैं। उन शिकारों के नाम भी बड़े धाँसू होते हैं और उन्हें दुल्हन की तरह सजाया होता है।कई शिकारे ऐसे थे जिसमें चार व्यक्ति बैठ सकते हैं। वहाँ हाऊसबोट भी हैं। कई तो तीन मंजिला भी हैं जिनमें चार शयनकक्ष और अटैच शौचालय तथा काॅमन डाइनिंग रूम भी है।खाने पीने की सभी सुविधाएँ हाऊसबोट के किराए में शामिल हैं। जिन्हें प्रकृति का पूरा लुत्फ उठाना हो और उसका किराया वहन करने की क्षमता हो, वे हाऊसबोट में रूकते हैं।डल झील में हाऊसबोट तक पहुँचने के लिए शिकारे द्वारा ही जा सकते हैं, क्योंकि ज्यादातर हाऊसबोट नागिन और झेलम नदी के किनारे पर हैं। झेलम नदी का कुछ भाग श्रीनगर से होकर गुजरता है।
 
      जिस दिन लाहौर बस का शुभारम्भ होना था और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को आकर उद्घाटन करना था, उस दिन टूरिस्ट सेंटर में सुबह से मिलिट्री की गाड़ियों का तांता लगा हुआ था इसलिए घूमने के लिए वहाँ से कोई भी बस उपलब्ध नहीं थी।कई लोग वहाँ टिकट लेने के लिए पहुँचे हुए थे जिनमें दिल्ली के दो परिवार भी शामिल थे। हम तीन परिवार के लोगों ने मिलकर एक मैटाडोर की तथा सोनमर्ग के लिए रवाना हो गए।
 
    रास्ते में हम महिलाओं ने एक दूसरे को खाने की रेसिपी बतानी शुरू की।सबके पति बोले,"घर में कहती हो कि हम सारा दिन रसोई में पकती रहती हैं।अब यहाँ तो रसोई भूल जाओ।"
 
      एक की बिटिया पाँच साल की थी।उससे कोई कविता सुनाने के लिये कहा।उसने एक ही कविता को सुना सुना कर पका डाला।दो घण्टे तक चुप ही नहीं हुई। कविता मुझे आज तक याद है जो ये थी
 
मछली जल की रानी है 
जीवन उसका पानी है 
पानी में डालो, जी जाएगी
बाहर निकालो मर जाएगी 
 
     बार -बार उसको कहा कि कुछ और सुना दो। उसी कविता को बार बार, बार बार, बार बार सुना कर पका दिया। मना भी किया कि बेटा बस कर। हमें अपनी बात करने दे लेकिन वह लगातार, जब तक सोनमर्ग नहीं आ गया और हम मैटाडोल से नहीं उतरे, तब तक वह अलापती रही। शुक्र है कि वापसी में सो गई थी तो हम अपनी बातचीत कर पाए
 
     सोनमर्ग में केवल बर्फ ही बर्फ थी।कोई घर... कोई दुकान कुछ नहीं।सोनमर्ग में हमने स्लेस पर बैठकर उसका भरपूर आनंद लिया। बर्फ के ऊपर बैठकर खूब फोटोग्राफ्स खींचे।एक फोटो तो ऐसी है कि देखकर लगेगा जैसे ये मेरे पाँव छू रहे हों।मुझे पहले ही बर्फ के टीले पर सहारा देकर चढ़ा दिया था।खुद चढ़ने लगे तो फौरन सहयात्रियों ने फोटो खींच लिया।ये ऊपर तो नहीं चढ़ पाए।फिसलते हुए नीचे आ टपके।
 
     सोनमर्ग से हम पाँच बजे वापस आ रहे थे तो हमारी आँखों ने जो देखा,उस दृश्य को याद करके आज भी रूह काँपती है। 
 
    देखा कि टूरिस्ट सैण्टर धू- धू करके जल रहा था। सबकी साँसे ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे। सबके हाथों में कैमरे होने के बावजूद भी हम सब इतने सहम गये थे और हतप्रभ रह गये थे कि बदहवासी के आलम में किसी को लाईव फोटो लेने का होश नहीं था।बाद में पता लगा कि दो मानवबम आतंकवादी टूरिस्ट सैण्टर में घुस गये थे और आग लगा दी।इतनी मिलिट्री होने के बावजूद भी ..... हमारा होटल केवल पाँच मिनट की पैदल दूरी पर था। बाकी दो परिवार हाउसबोट में ठहरे थे।शुक्र है कि पुलिस वालों ने एक थ्री व्हीलर करा दिया। जैसे- तैसे सहमते- सहमते गलियों से निकलते हुए अपने होटल में पहुँचे। 
 
       जैसी हड़ताल उन सात दिनों में देखी... ऐसी हड़ताल आज तक कहीं नहीं देखी।सात दिन तक पूरा बाजार बंद रहा। कोई होटल, कहीं पर भी नहीं खुला हुआ था। टूरिस्ट सैण्टर के पास ही दो तीन रेहड़ी वाले चाय बेचते थे व आलू के परांठे बनाते थे। 
 
    जाने किन लोगों के इशारे पर इस तरह का माहौल बनाया गया जबकि यह तो सद्भावना यात्रा थी।दो देशों के लोगों को अपने सगे सम्बन्धियों से मिलने के लिए लाहौर बस सेवा शुरु की गई थी किंतु फिर भी इस तरह का माहौल????किसके इशारे पर???
 
      जिस उत्साह से हम कश्मीर घूमने गये थे और यह सोचकर गये थे कि लाहौर बस सेवा शुरु हो रही है तो वहाँ बहुत अच्छा माहौल होगा।कश्मीर घाटी खूब सजी हुई होगी।प्रधानमंत्री के स्वागत में लोग पलक पाँवड़े बिछाए बैठे होंगे।वह सारी खुशी वहाँ जाकर काफूर हो गई। घर में भी सबको टेंशन रहती थी इसलिए रोजाना फोन करना पड़ता था। शुक्र है कि टेलीफोन बूथ होटल के बिल्कुल बराबर में था और वहाँ फोन करने वालों की भीड़ लगी रहती थी। काफी- काफी देर में नंबर आता था।
 
      दो परिवार हमारे साथ सोनमर्ग गए थे। हम बाद में जहाँ भी गए, इकट्ठे ही गये। हमारी वापसी की टिकट 8 तारीख की थी और उनकी 9 तारीख की थी। एक परिवार उत्तमनगर से था। उनके पास खबर आई कि एक महिला के जवान भाई का देहांत हो गया था।यह सात तारीख की रात की बात है। हमारे पास आए कि यदि टिकट आपस में एक्सचेंज हो जाएं तो हम आठ तारीख को जा पाएंगे।मेरे पति ने उन्हें बहुत दिलासा दी उनकी मदद करने के लिए एयरपोर्ट तक गए। टिकट्स चेंज करवाई। हमारी 8 तारीख की टिकिट 9 तारीख के लिये और उनकी नौ तारीख वाली आठ तारीख की करवाई।नाम ही तो चेंज होने थे, लेकिन जब नौ तारीख को हम एयरपोर्ट पहुँचे तो वे लोग एयरपोर्ट पर ही बैठे हुए ये। न जाने इतना समय उन्होंने किस टेंशन में गुजारा होगा??
 
       वो कश्मीर यात्रा सुखद नहीं, अपितु बेहद दुखद रही जबकि हम पहले भी दो बार कश्मीर घूमकर आ चुके हैं। वो जगह ऐसी है कि बार-बार जाने को मन करता है। पहले दो बार गये तो यात्रा बड़ी सुखद थी।कश्मीर के बारे में एक बात प्रसिद्ध है👇
 
 अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है यहीं है, यहीं है, यहीं है।
 
    इतने वर्षों पहले आँखों देखा वह दृश्य आज भी आँखों के सम्मुख जीवन्त हो जाता है।ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो।