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कविता: वो पांच दिन है गुजर जाती (पल्लवी जोशी, बोधगया, गया, बिहार)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार पल्लवी जोशी  की एक कविता  जिसका शीर्षक है “वो पांच दिन है गुजर जाती”:

शर्माती, छिपाती, कमीज़ खीच कर पैजामे को ढकती,
बस ऐसे ही वो पांच दिन है गुजर जाती।
 
कभी बेमन, कभी नीरस तो कभी चिड़चड़ाई सी,
लाल धबा ना दिख जाए कमीज़ पर इसलिए हड़बड़ाई सी,
पेट दर्द, सर दर्द, और कमर कि दर्द भी सही नहीं जाती,
आचार मत छुओ, रसोई नहीं जाओ ,पूजाघर मत प्रवेश करो,नए कपड़े मत पहनो,श्रृंगार मत करो ये मानसिक पीड़ा भी उन पांच दिन खूब रुलाती,
शर्माती, छिपाती, कमीज़ खीच कर पैजामे को ढकती,
बस ऐसे ही वो पांच दिन है गुजर जाती ।
 
25 दिन भगवान को खूब भजती फिर 5 दिन उन से भी दूरी बन जाती,
जब भाई, पापा पूछे दर्द की वजह तो क्यू उनसे ये जुबां कह ही नहीं पाती,
क्यों पहले माहवारी से सिखाई जाती :- "ये गंदी चीज है इसे मर्दों से छिपा के रखी जाती है",
उन पांच दिनों में एक ही बिस्तर पर ये जिस्म है पिघल  के बह जाती ,
शर्माती, छिपाती, कमीज़ खीच कर पैजामे को ढाकती,
बस ऐसे ही वो पांच दिन है गुजर जाती ।
 
नई जिंदगी की पैदाइश की जो  उन्मान है होती
हमारे जिस्म कि बहती वो गंदी मगर एक- एक कतरा रक्त कि तुम मर्दों को पिता बनने का अधिकार है देती,
अपवित्र मान कर जिसे रामायण , कुरान, गुरुग्रंथ से दूरी बनवाते,
यकीन करो अगर हम वो 5 दिन ना बहती ,तो शायद ये सृष्टि  की निर्माण ना होती,
शर्माती, छिपाती, कमीज़ खीच कर पैजामे को ढकती,
बस ऐसे ही वो पांच दिन है गुजर जाती ।
 
अफ़सोस की बात ये है कि मर्दों से ज्यादा 5 दिन की छुआ- छूत औरते ही निभाती ,
पैड छुपाकर काली पन्नी में लाना ये बात भी औरतें ही बताती
रसोई में  जाने से पवांदी, 5 दिन के बाद चूड़ी बदलने, नाखून कटवाने और ना जाने कितनी दकियानूसी सोच हमपे हावी करती ,
औरत होकर भी उस लाल रंग को असुद्घ कहती
बढ़ाती है लाल रंग से ही अपने वंश को फिर भी माहवारी को पाप है मानती,
शर्माती, छिपाती, कमीज़ खीच कर पैजामे को ढकती
बस ऐसे ही वो पांच दिन है गुजर जाती ।