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रक्तबीज_१० (अन्तिम भाग) || सत्यम घिमिरे "भुपेन्द्र", जालापाडा बस्ती, बानरहाट, जलपाईगुडी, पश्चिम बंगाल ||

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सत्यम घिमिरे "भुपेन्द्र" की "रक्तबीज काव्य शृंखला" की एक कविता:

|| रक्तबीज_१० ||


जहाँ भी देखो वहाँ है चिर हरण हर बार

जाना पहचाना ही खुनी निकला हर बार

रामराज्य कि कल्पना हुई बेकार

इसके पिछे भी है रक्तबीज कि औलाद

 

खोज करना बहुत जरुरी है इकबार

क्या दुश्साशन का नही हुआ सन्हार

भारत कि भुमी मे क्या हुआ था संग्राम

क्या हुआ है उसका परिणाम ।

 

लौट चला मै रक्तबीज के दरबार

जानने आखिर कैसे बच गया रक्तबीज

महा समर मे काली से नही हुई थी भुल

एक इन्सान था रक्तबीज का दुत

 

रावण को भी पिलाया था एक बुन्द

गान्धारी कि नीर मे मिलाया था बुन्द

कौरवो ने महासमर मे छुपाया था वह बुन्द

जो जागता रहा है इन्सान मे बुन्द बुन्द

 

 

क्योकि उसी धरा से उपजती है फसल

जिसे खाकर इन्सान हुआ है हैवान

तो क्या धरती से उपज रहा है रक्तबीज

क्या नही हो सकता अन्त रक्तबीज का ।

 

 

हर भेष मे जहाँ भी होता है अपराध

धर्म कि हानी धर्म के नाम पर होती है

इन्सान मरता है इन्सान के वार से

वही खडा हुआ मिला रक्तबीज हर बार।

 

रक्तबीज का ताण्डव है विक्राल

दुर्गा का करता है हर बार चिर हरण

उसे बचाने आता है दुसरा रक्तबीज हर बार

शहर गाव हर ओर है उसका वार ।

 

इन्सानी भेष मे कौन है रक्तबीज

इसका सिधा साधा है ज्ञान ?

जहाँ लालच हो मगरुर अपराध हो दण्ड से मुक्त ,

कोई आवाज न उठे , वहाँ है रक्तबीज ।

 

रक्तबीज का है बडे से बडा यहाँ जमात

एक युद्ध से होगा नही सम्पुर्ण अन्त

लडने होन्गे कई कई महा युद्ध

समर पर कुदने से पहले बान्ध लो कफन ।

 

घोर घनघोर आवाजो को प्रशय दो

अपने हथियारो को धार नया प्रवार दो

मस्तिष्क के कोने कोने मे संवेदना दो

भेद खोल कर रक्तबीज कि गर्दन मोड दो ।

 

 

आह्वान करो खुद के अन्दर के शिव का

खुद के अन्दर के काली विरभद्र वीर का

रक्तबीज के नश्ल कि है बडी जमात

मगर हार न मानकर युद्ध मे कुद पडो ।

 

जानकर भी अभी अगर न कर सके संग्राम

आने वाली पिढी करेगी तुम्हारा तिरस्कार

अब भी कुछ हुआ नही,बिता नही है बहुत समय

आवाहित करो मर्दन के लिये रक्तबीज का ।

 

तोड सिराओ कि हर एक झिल्लिया

गर्जन भरो अत्याचारी का वध संग्राम का

मगर ध्यान रहे एक बुन्द भी न बच पाये

क्रुर स्वर्थी विशाल जमात रक्तबीज का ।

 

समर शेष है मस्तिष्क मे हुन्कार भरो

थोडा अकडो थोडा सम्भलो वार तैयार करो

हर युद्ध मे जाती है जान,खुन का इन्जाम करो

लेकर महाकाली का नाम अब संग्राम करो

 

अपने भुजाओ से दर्प दुष्ट का विनाश करो

जो भी आये रोकने उसका ही मर्दन करो

बढो आगे चलो आगे मौत है उससे लडाई करो

तिलक माथे पर विजय का दशमी मे लेप करो

 

दहन रावण के पुतले का नही

रक्तबीज का युग अन्त गर्जन करो

भाल पर ताल लिये मा दुर्गा का आह्वान करो

मर्दन करो संग्राम करो संग जमात रक्तबीज का।

 

ये कविता चन्डी सप्तसती का पाठ नही

रक्तबीज के अत्याचारी रुप संस्कार का है

अन्त रक्तबीज के विनाशकारी युग का

खुद अपने भुजाओ मस्तिष्क के बल पर करो।

 

अगर न कर सके युद्ध संग रक्तबीज से

तो अपनी एक अलग फौज तैयार करो

जो लडने को है तैयार जीवन जिने के लिये

उसके सामने माथा टेक दन्डवत प्रमाण करो।