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कविता: अनकही व्यथा (मीनाक्षी सुकुमारन, नोएडा, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार मीनाक्षी सुकुमारन की एक कविता  जिसका शीर्षक है “अनकही व्यथा”:
 
बिटिया थी दुलारी
अपने माँ बाबा की
बहना थी प्यारी
अपने भाई बहना की
पर लगी नज़र ऐसी
जकड़ लिया अपने
पंजों में दानवों ने
कर के हरण किया
दुष्कर्म कर कर के
तार तार मासूमियत
और इज़्ज़त मेरी
इतने पर भी न भरा
मन तोड़ दी गर्दन की
हड्डी काट दी जुबान
छोड़ यूँ अधमरा भाग
गए ऊंची जाति के वो
दानव सारे
छोड़ तड़पने और मरने को
इस छोटी जाति की बेटी को
कई दिन हस्पताल में रहने
पर चली चाल ले जाने को
दिल्ली और एक ही दिन में
हो गई खत्म कहानी मेरी
अन्याय पर अन्याय ऐसा
मौत को भी न मिला सम्मान
न साथ अपने परिजनों का
बस जला दिया रातों रातों
तड़पती रही माँ
बिलखते रहे पिता
छटपटाती रही बहन
गुहार लगाता रहा भाई
पर सुनी न सदा किसी ने
पहले दुष्कर्म फिर रहस्यमयी मौत और यूँ मनमानी कर
बिना किसी को बताए जला देना
जात पात और मजहब की राजनीति का आईना
है जिसने खड़े किए कितने
सवाल ताकतवर दरिंदो,सत्ता, प्रशासन, कानून जिसने रचा खेल ये सारा एक मासूम बेटी
के साथ जिसका कसूर भर इतना था थी वो गरीब और निम्न जाति की
क्या इज़्ज़त भी बड़ी छोटी होती है
क्या अपराध का मापदंड भी छोटा बड़ा होता है
क्या गरीब को सज़ा
अमीर को संरक्षण
यही क्या एक बिटिया की नियति है
पूछती  चीख चीख कर हर वी बेटी जो आये दिन होती शिकार इस घिनौने दुष्कर्म का
और पूरा सिस्टम लग जाता फिर उसकी लिपा पोती पर
ये विडंबना नहीं तो और क्या है ??
कौन दिखाए आईना
जात पात, मजहब, राजनीति, सत्ता, कानून
के इन  मुट्ठी भर ठेकेदारों को
ताकि हो सकें सुरक्षित बेटियां हमारी