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कविता: किन्नर की पीङा (सीमा लोहिया, झुंझुनू, राजस्थान)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सीमा लोहिया की एक कविता  जिसका शीर्षक है “किन्नर की पीङा”:

तुमसे पूछते हुए आवाज मेरी इतना भर आई,

मेरे देह सृजन की आधार जननी मुझे ना बताई।

 

नो महिने जिस शिशु को पेट में पालते पालते,

हर मुश्किल सह तुमने हमेशा खुशी दिखाई।

 

घटते क्रम में तुमने रोज दिन गिनते गिनते,

जाने कितनी राते मेरे ख्वाबों में जगते बिताई।

 

मै महसूस करता था तेरे प्यार का हर स्पर्श,

जब जब तुम मुस्कराकर पेट को सहलाई।

 

मुझे दुनिया में आने का समय जब आया,

सबसे पहले देखने को तुम बेताब हो आई।

 

ना नारी है ना ही कोई पुरुष कोख से जन्मा,

मेरे जन्म की खबर नर्स ने जब तुम्हे सुनाई।

 

मै तेरी बाँहो में आने को हो उठा था अधिर,

पर तुमने भी मेरी क्यों नही की मुँह दिखाई ।

 

सबके चेहरे से खुशियाँ काफूर कैसे हो आई,

मेरी जन्म की क्यों नही बँटी थी कोई बधाई ।

 

मै किन्नर हुआ तो दोष मेरा तो नही था ना,

माँ ! तुमने अपने अंश से कैसे नजर फिराई।

 

अपने आपसे और इस समाज से बहिष्कृत,

करते हुए क्या तुम्हारी आँखे नही भर आई।

 

सामान्य तन ना सही पर मेरा मन तो वही है,

अपने से दूर करने का क्यों ना विरोध जताई।

 

ममता की प्रतिमूर्ति मुझ पर जरा ना लुटाई,

मेरे जन्म के अपवाद को क्यों नही बताई।

 

थोङा अगर तुम अपना साहस दिखा पाती,

तो आज दर दर घुमते ना होती जग हँसाई।

 

जिन खुशियों को मै संसार से पा ना सका,

उनमें खुश होकर मैने कितनी तालियाँ बजाई।

 

जिस बधाई को मै जन्मभर तरसता रहा हूँ,

घर घर जाकर स्वयं दी है अनगिनत बधाई।