पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार पृथ्वी राज कुम्हार का दोहा:
कवि हैं स्याही का दुल्हा,
शब्द उसकी बारात।
पृष्ठ उसका मंडप रहता,
विचार उसकी रात।।
क़लम उसी का पंडित है,
रस से चलता काज।
विरल हो स्वभाव जिसका,
ऐसा है कवि
राज।।
हर बात को कह शब्द में,
यह हैं कवि पहचान।
बात इनकी सुनकर भी,
घूंघट-घूंघट क्या करें,घूंघट का सब खेल।
घूंघट अगर नहीं रहे,नहीं रंगीला छैल।।
घूंघट है भारी प्रथा, इसमें सबकुछ मौन।
बिन देखें पहचानता,पास खड़ा है कौन।।
घूंघट के खातिर हुआ,भयंकर भाल जौहर।
अंगारा भी गार हुआ, यह पद्मीनी मौहर ।।
ना रहा घूंघट अपना,मिट गई सारी रीत।
ना रखा घूंघट जिसने,बन गई हनी प्रीत।।
देख अपनी आदत को,करलो अन्न का मान।
जितना तुमसे हो सके,करते रहना दान।।
योग्य अगर तुम हो गए,करना रक्त का दान।
रक्त अगर नहीं दे सको, सूर हो महादान।।
दान को यूं मत गिनना,मिले कोई गरीब।
चेहरे पर मुस्कान हो, रहिए सभी करीब।।