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कविता: मैं सूरज की साथी हूँ (मोना सिंह “मोनालिशा”, अहमदाबाद, गुजरात)

 
पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार मोना सिंह मोनालिशा की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मैं सूरज की साथी हूँ”: 

तुम्हें जो लग रहा है ना ...
चांद अटका है मेरी खिड़की पर,
क्या बताउँ तुम्हें, खिडकी से झांकता चांद,
मुझे कहीं और अटका नज़र आ रहा है।
पर क्या हुआ, जहाँ भी अटका हो ..
मेरी भी खिडकी की ऱौनक तो बढ़ा रहा है।
ऐ चांद मत सोचना कि तु मुझे जला रहा है
क्यों जलूं मै तुमसे ...
पता है मुझे, तु उधार की रोशनी से जगमगा रहा है।
 
ऐ चांद तु यूँ ही चमकता रहे,
तु यूँ ही दमकता रहे,
मै तेरी प्रभा में नहाती रहूँ।
पर इक राज की बात, आज तुमको  बताती हूँ।
तुझे पाने की ललक नहीं,
बस तेरी झलक की ही दिवानी हूँ।
तेरी प्रभा निश्चित शीतलता बरसाती है,
पर तुझमें  रौनक भरता है जो,
मै तो उस सूरज की साथी हूँ।
 
तुझे दंभ है अपनी सुरत पर,
मुझे दंभ है जल रहे अपने सूरज पर।
नग्मों में  गज़लों मे तुम लुभाते हो,
पर बताओ ज़रा ...
बिना सुरज के कब नज़र आते हो।
अच्छी लगती है तुम्हारी हर कलायें,
तेरे सूरत के धब्बे भी मुझे भाते है।
पर सूरज का, जलकर जीवन भरने की अदा .....
मुझे ज्यादा पसंद आते है।
 
ऐ बहुरूपिये चांद यूँ ना इतराओ,
पता नहीं इतना दंभ क्यों है तुममें।
जो रूप किसी को भा जाए तुम्हारा,
जल्दी नहीं दिखाते दुबारा।
क्यों तरसाते हो इतना,
क्यों भाव खाते हो इतना।
तुम्हारे यही नख़रे मुझे नहीं भाती है।
मुझे तो सूरज के तौर तरीके ही पसंद आते हैं।
 
ऐ चाँद ! सीखो कुछ सूरज से,
जलता है, तिमिर को खा जाता है।
हम आएँ ना आएँ,
ठीक समय पर वो आ जाता है।
धरा भी उसकी किरणों को चखकर मग्न हो जाती है
पंछियों की मधुर चहचहाट से,
कलियों के अंदर की गुदगुदाहट से,
नवदिवस का आनंद बढ जाता है।
पर मेरा सूरज कभी भाव नहीं खाता है।
अब बताओ कुछ गलत कह रही थी !
कि मुझे सूरज ही लुभाता है।