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कविता: मुफ्त भी मुफ्त में मिलता नहीं (संघमित्रा राएगुरू, रायपुर, छतिशगढ़)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “संघमित्रा राएगुरू की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मुफ्त भी मुफ्त में मिलता नहीं”:

 
तुम मुफ्त में प्यार करते रहे
ये सोचकर हम इतराते रहे
ज़माने के गम गिलास में डाल
तुम्हारे खातिर पीते रहे
 
पीने को तो हम पी जाते तुम्हे
तुम पहाड़ हुए हम पिघलते रहे
हवाओं का रूख बदलते थे हम
तुम हवा हुए तो हम कपूर हुए
 
सोचने को क्या क्या सोचे थे पर
तुम्ही को सबकुछ बेचे थे पर
तुम सोच बन गए तो हम रचते रहे
 
रचने को मेहेंदी मिली नहीं
तुम्हारे नाम की हल्दी मिली नहीं
क्या सिर्फ तुम्हारा टूटा था ख्वाब
आंख हमारी गिली नहीं ?
खामोशी बनकर अबतक तुम
बेवफा मुझे कहते रहे
 
कहना था तो कुछ भी कहदेते
शब्दों के धार से हमे बहा देते
सारा आसमां नहीं था मगर
एक टूकड़ा हम से ले जाते
हाथ न आया चाँद जो
तारों को तुम  कुचलते रहे
 
कोई मुफ्त भी मुफ्त में मिलता नहीं
देने वाला न लेके रुकता नहीं
नासमझ थे हम ये न समझे
इश्क़ में जमानत मिलता नहीं
मिलने को तो मिले हो ऐसे
जैसे शिशे सा कोई आज़माते रहे ।।