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कविता: जिंदगी सुंदर लगी (वीणा गुप्त, नारायण विहार, नई दिल्ली)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “वीणा गुप्त की एक कविता  जिसका शीर्षक है “जिंदगी सुंदर लगी”:

 
दायरों से निकले बाहर, ज़िंदगी सुंदर लगी।
जब कुएँ से झाँका बाहर, ज़िंदगी समंदर लगी।
 
कितने पर्वत,ढेर नदियाँ, कितने फूल,तितलियाँ।
नेमतें दीं कितनी उसने, हसीन है कितना जहां।
नूर कुदरत का जब देखा, ज़िंदगी मंजर लगी।
 
मरीचिका के भरम में, मृग बन मत भटक तू
तेरे ही अंदर उजाला, मन  में अपने झाँक तू
प्यास बुझ जाएगी तेरी, हसरत सभी मिटने लगी।
 
तिलक, छाप, कुर्बानियों को, अब तू बंदे भूल जा।
हरेक दिल में वो समाया, बात इतनी जान जा।
पाएगा सुकून तू, तब ज़िंदगी मंदिर लगी।
 
 
ये है अपना, वो पराया,छोड़ दे यह, मोह-माया।
सब हैं उसके, वो है सबका, मरम जो यह जान पाया।
इंसानियत को चाहा जब, आशिकी जन्नत लगी।
 
भूल नफरत और हिंसा, विवाद मज़हबी मिटा दे,
हैवानियत है नींव जिनकी, दीवारें वो सभी ढहा दे।
सद्भाव और भाईचारे की, जोत अब मन में जगी।
 
शंख, घंटी और अजान की, आवाजें सुनाई दे रहीं।
मंजिल एक, राहें अनेक, बात यही सबने कही।
नेकी कर, ये सच्ची पूजा, इबादत यही सुंदर लगी।
 
दायरों से निकले बाहर, ज़िंदगी सुंदर लगी।
जब कुएँ से झाँका बाहर,
जिंदगी समंदर लगी।