दीवारों की चारदीवारी
अजीब सा बंधन
जहाँ कई जिम्मेदारियां, लिए
हर वक़्त, एक पैरों पर
तैयार खड़ी है, वो
कहाँ गए, वो पल
बचपन की वो नादानियाँ
पापा की, परी वो
बुन रही, अनकही कहानियां
उसके अधिकारों को, एक
पिंजड़े में कैद कर दिया गया
दिलों की हर, ख्वाहिशों को
उस चारदीवारी में, जबरन
बंद, कर दिया गया
ये प्रश्न है, गंभीर
व खतरनाक भी
बिडंबना कुछ और
पर दृश्य, कुछ और है
इस भारतवर्ष की
सुनी हुईं, हर गलियां
हर वक़्त, वो बेटी है, लाचार
कहां गए, दम भरने वाले
जो बनते थे, चौकीदार
सम्मान ध्वस्त हो रहा
विश्वास धूमिल हो रहा
इस, निंदनीय घटना पर
ये, देश कैसे, सो रहा
पूजनीय नारी की
इस देश में, कैसा आसन है
हर गली, चौराहे पर
हर वक़्त, खड़ा दुशासन है
कहां गए, वो दावे
जो किए गए थे, भर-भर के
नारी सम्मान, चिल्लाने वाले
क्यों भुल गए, वादे करके
अधिकारों की बात, ही नहीं, अब
न उसे जीने की अभिलाषा है
रामराज्य में, नारी की
कैसी, ये परिभाषा है !!