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कविता: गोरखा हुं मैं (बिवेक कामी, गंगुटिया चाय बगान, कालचिनी, पश्चिम बंगाल)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “बिवेक कामी की एक कविता  जिसका शीर्षक है “गोरखा हुं मैं”: 

कोई और नहीं गोरखा हुं मैं.....
इतिहास के पन्नों पर
मेरे वीरों की कहानी है
मेरे बेटो ने भारत के लिए बलि दी
अपनी जवानी है।
 
मेरे दिल से पूछो
जब बात भारत के
सम्मान की  बात आए तो
दूश्मनों के लिए उनका काल हुं मैं
कोई और नहीं गोरखा हुं मैं.....
 
भिन्न-भिन्न प्रान्तों में बसे
मेरे लोग हैं,
मेरे लिए भारत देश महान है,
भाषा अलग है लेकिन
मेरे ज़ुबां पर
भारत माता की जय है....
 
तोड़े से टूट जाएंगे हम
ऐसा ना सोचें कोई
हम विदेशी हैं
यह न कहना कोई
मुंह से भारत माता की जय
और दिल में तिरंगा है,
कोई और नहीं गोरखा हुं मैं.....
 
आज फिर मेरे वीरों ने
निकाली अपनी टोली हैं,
जय-जय काली मां
काली आयो-आयो गोर्खाली
से भर रही मेरी झोली हैं,
अब तो हमें गोरखालैंड पाना है
भारत में विदेशी होने का कंलक
अब हमें मिटाना है.
कोई और नहीं गोरखा हुं मैं... ।‌