आज तो परम लघु रूप धरि लीनो आप,
पीछै तो अकास को अमित बिस्तार है ।
यहि एक अचरज अगुन पुकारै कोई,
कोई बतरावै तुम्हैं गुन को अगार है ।
माया के निधान,लोक- लोकन विलास तेरो,
जगत् के कण- कण तेरो ही प्रसार है।
कहै रविकंत, सार तू ही है अनादि ब्रह्म,
दुनी तो प्रपंचमय, परम असार है ।।
पीत-पट वारै प्रभु, साँवरै तिहारी छवि,
नित नयो रूप लेके मोहि अति भावै है ।
आपको स्वरूप है अनूप औ हृदयग्राही,
मन को अनंद मेरो बढ़ि- बढ़ि जावै है ।
पीरी- पीरी गोल पाग, मुगता की लड़ी संग,
खूब जँच रही,छटा और ही बनावै है ।
कहै रविकंत, बलिहारी तो पै जाऊँ स्याम,
धन्य- धन्य होवै जो भी प्यार तेरो पावै है ।।
पीरे -पीरे दुपटे पै हरो वेस खूस सोहै ,
संयोजन गुलाबी-सफेद मन मोहै है ।
मोर पंख साँवरे को स्वर्णमय है बिसाल ,
मधुर बिलोकनि भी चित्त को विमोहै है ।
मेरे नंदलाल तू अनंत सुषमा को धाम ,
आभ तेरी नई -नई नित ही नितोहै है ।
रूप की ही प्यास मुझे चाँद तू चकोर हूँ मैं ,
तृषा तीव्रतर मन चकित चितौहै है ।।