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कृष्णभक्ति के छन्द (घनाक्षरी कवित्त) :: रविकान्त सनाढ्य, भीलवाड़ा, राजस्थान


केसर- बरन वेस धरे हैं श्रीनाथ प्रभु , 
आपकी लुनाई का न आदि है न अंत है ।
चाहते हैं  आपको अबाल-वृद्ध, नर -नारी, 
दरस ते पुलकित संत औ महंत हैं।
आपके अधर हैं अनारकली आरकत, 
कुंदकली जैसे शुभ्र मोती जैसे दंत हैं ।
आपको प्रताप दीप्त होय रह्यो भानु सम , 
कीरति से गूँज रहै, दिग् औ  दिगन्त हैं  ।।


नूतन है परिधान आपके  सु तन आज , 
नये अलबेले इस रूप की बधाई है।
रंग हैं विविध, कला - संगम रुचिर बन्यो, 
तड़क-भड़कयुत बान कीदुहाईहै।
आपको विलास  लीलामय औ रहस्यपूर्ण, 
दुनिया  अवाक् कछु समुझि न पाई है ।
दरसन करें अरु मुग्ध होय रही बस, 
रस की अलीक लीक आपने चलाई है ।।


नभ के सितारों मध्य चाँद भी अनूठा उगा, 
जग है कृतार्थ हुआ, कृष्णचन्द्र बाजै है ।
सर्वगुण युत है औ नीति में धुरंधर  जो,
राजराज योगेश्वर द्वारिका के राजै हैं ।
इनके तो ठाठबाट कहा मैं बयान करूँ, 
 सब सुख- साज याके चरणों में साजै हैं ।
इनको समरपित होइ जावै कोई यदि , 
बीसबिसै कहूँ, प्रभु  रीझते अकाजै हैं  ।।