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कविता: मोबाइल (राघवेंद्र सिंह, चिनहट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राघवेंद्र सिंह की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मोबाइल”:

रिश्तों का संसार कहूंँ तुम्हें या कहूंँ पूर्ण परिवार मैं।

उस अतीत से वर्तमान का कहूंँ कोई भी सार मैं।

हो युग के परिवर्तनकर्ता मानव के निश्छल अंश हो तुम।

सम्पूर्ण विश्व तुझमें बसता विज्ञान जगत के वंश हो तुम।

 

तन के तार छुए तुमने मन के तारों को भिगो ही दिया।

बन स्वयं गति संप्रेषण की तुमने तो स्वयं भी रो ही दिया।

वास्तविकता के शहर में एक मायावी यंत्र हो तुम।

हर मनुष्य परतंत्र है किन्तु स्वयं तो स्वतंत्र हो तुम।

 

हर मनुष्य के प्राण हो तुम उंगलियों पर हो नचाते।

तुमसे ही होती सुबह है और तुम ही हो रात लाते।

ऊंच नीच और जात पात का भेद तुमने है मिटाया।

हर पल हर क्षण का ज्ञान निःस्वार्थ तुझमें है समाया।

 

हर पल का समय है तुझमें भाषाओं का भंडार है।

हर मानव की दृष्टि तुझमें प्यार और तकरार है।

तुम बच्चों की बने कहानी और बने हो कविता तुम।

कहीं बने संगीत कर्णप्रिय और शिक्षा के सविता तुम।

 

मोबाइल और दूरभाष यंत्र विचरण से हैं नाम पड़े।

दिखने में हो तुम छोटे से किन्तु तुम्हारे काम बड़े।

गुण दोषों से युक्त हो किन्तु नए युग की पहचान हो तुम।

सामाजिकता को दिया बढ़ावा विज्ञान का अभिमान हो तुम।