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कविता: वक्त की चाल (सीमा गर्ग मंजरी, मेरठ, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सीमा गर्ग मंजरी की एक कविता  जिसका शीर्षक है “वक्त की चाल:

आज तुम्हें अपनी जिंदगी,
की मैं दास्तां सुनाती हूँ!
हसरतों के मेले में कैसे,
उजडी तकदीर बताती हूँ!
जठराग्नि प्रद्दीप्त होती है जब,
अंतडियाँ कुलबुलाती हैं तब!
मजबूर विवश निरूपाय,
कचरे के ढेर पर जाती हूँ!
कचरा बीन इकट्ठा करती,
बेचकर जो भी मिलता!
अपना और इस बेजुबान,
का पेट भरती हूँ !
किंतु ,
मैं बहुत स्वाभिमानी हूँ !
फोकट हाथ नहीं फैलाती हूँ!
आँखों में शर्मो-हया के ,
जेवर पहन के रखती हूँ !
रोटी-पानी की जंग में,
रोज कचरे के ढेर पर जाती हूँ !
लादकर सिर गठरी कचरे की,
श्वान को भी संग ले आती हूँ !
मैं भी किसी जमाने में,
बहुत धनवान थी!
पति बच्चें संग बहुत,
खुशहाल निहाल थी!
वक्त की चाल बदली,
बदल गयी परछाई!
रिश्ते नाते पैसे से होते ,
देरी से समझ पाई!
दम तोड़ते रिश्तों से ,
मैने गहरी चोट खाई !
पति के जाते ही सबने,
मुँह फेर बदल ली अखियाँ !
घर बार की बरबादियाँ,
मुझे फुटपाथ पर ले आई !
वक्त की बे आवाज लाठी,
की मार से अब कंगाल हूँ !
परिवार उजड़ा सब छूटे,
मैं ठनठन गोपाल हूँ !
मैले कुचले वस्त्र हैं मेरे ,
तन पर मैल की!
परत दर परत चढ़ी,
खाने के लाले हैं मुझे !
साबुन नहाने की किसे पड़ी,
फुटपाथ पर आबाद है!
अब मेरी खाक दुनिया,
किसी कोने में लाचार!
रोती रहती है अँखियाँ ,
ये श्वान दुख दर्द का साथी है!
छोड गये रिश्ते नाते सब,
जानवर में अभी वफा बाकी है!
उलझा जीवन सुलझा नहीं,
रूठा नसीब सँवरा नहीं!
वक्त की मार से बचना ,
तुम ओ नादान इन्सान !
वक्त की चाल पलटते ही,
बदल जाता है इंसान!!