पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार आदिवासी सुरेश मीणा की एक कविता जिसका
शीर्षक है “दशहरे की रात”:
मर चुका है रावण का शरीर..
स्तब्ध है सारी लंका..
सुनसान है किले का परकोटा..
कहीं कोई उत्साह नहीं..
किसी घर में नहीं जल रहा है दिया..
विभीषण के घर को छोड़ कर.... ।
विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए..
ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक..
बार-बार लक्ष्मण से पूछते हैं..
अपने सहयोगियों की कुशल-क्षेम..
चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान ..
कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को..
अशोक वाटिका से..
पर कुछ कह नहीं पाते हैं ...।
हो जाता है विभीषण का राज्याभिषेक...
और राम प्रवेश करते हैं लंका में..
ठहरते हैं एक उच्च भवन में.... ।
यह समाचार देने के लिए...
कि मारा गया है रावण..
और अब लंकाधिपति हैं विभीषण ...।
और रहती हैं ख़ामोश..
कुछ नहीं कहती..
बस निहारती है रास्ता..
रावण का वध करते ही...
वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?
नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता..
कैसे रही सीता... ?
जिसे समझ नहीं पाते हनुमान...
कह नहीं पाते वाल्मीकि.... ।
इन परिचारिकाओं से..
जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी..
स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की
वे रावण की अनुचरी तो थीं...
पर मेरे लिए माताओं के समान थीं ...
इन अशोक वृक्षों से..
इन माधवी लताओं से
जिन्होंने मेरे आँसुओं को..
ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर..
पर राम तो अब राजा हैं..
वह कैसे आते सीता को लेने ...?
और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर..
पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है...
जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह ..
गूँजता है राम का स्वर..
सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप !
ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता..
क्या देखना चाहते हैं...
मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर..
चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ ...?
भूल जाती है पति-मिलन का उत्साह..
खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बन्दिनी की तरह ..
जो वर्ष भर पर-पुरुष के घर में रही स्त्री को..
करेगा स्वीकार ..?
और मृत्युपर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा..
मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना..
पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह ..
वे क्यों लिखते सीता का रुदन..
और उसकी मनोदशा ...?
कि क्या यह वही पुरुष है..
जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण...
क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में..
मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल..
और भटकी थी वन-वन ...!
हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन...
वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में
पर रावण पुरुष था...
उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया...
भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में ..
क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी ...
सीता ने अग्नि-परीक्षा दी..
कवि को कथा समेटने की जल्दी थी..
राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए..
नगरवासियों ने दीपावली मनाई..
जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए ...
मैं उदास हूँ उस रावण के लिए..
जिसकी मर्यादा..
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी ..
जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके ...
मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए..
उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए ..