पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार कल्पना गुप्ता "रतन" की एक कविता जिसका
शीर्षक है “बेवजह”:
बेवजह उलझना धागों का होता है काम
उलझ सुलझ में निकल जाती जिंदगी तमाम
बादल भी गरजते हैं
बिजली की तरंगे छोड़ते हैं
उमड़ते हैं घुमड़ते हैं
फिर भी बारिश का नहीं दिखता कहीं नाम।
सुबह से हो जाती है शाम
बचपन से बुढ़ापे तक बदल जाते हैं विचार
छोड़कर सब जपते हैं राम
महंगाई का हम क्या कहें
बेवजह ही बढ़ते रहते हैं दाम।
रोज़ आते हैं चले जाते हैं
पथ मे़ अगर कांटे भी भरे हों
चलना पड़ता है आठों याम
छलकते हैं आंखों से आंसू बनकर
बेवजह ही कभी पीना पड़ता है जाम।
सूरज भी उगलता है गर्मी कभी
पारा गिर जाता है न्यूनतम से कम
बारिश की बूंदे बन उग्र देती है गम
नदियां भी दिखाती हैं अपना रौद्र रूप
शायद चाहती हो देना कुछ पैगाम।
आईने से खुद अक्स हटता नहीं
बादल बेवजा ही फटता नहीं
मुफलिसी में कोई खुश रहता नहीं
वजह ही तो करवाती है बदनाम
वजह लेकिन दिखती नहीं सरेआम।
दिल मेरा होकर भी उनका ना होता
कभी-कभी दर्द अपना भी समझ आता नहीं
अंधेरों का चिराग बन पाता नहीं
यूं ही जिंदगी गुजार देते औरों की खातिर
वजह ही तो थी जो होकर रह गए गुमनाम।