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कविता: बड़े घर की औरतें (प्रिया गौड़, रामगढ़, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार प्रिया गौड़ की एक कविता  जिसका शीर्षक है “बड़े घर की औरतें”:
               
बड़े घर की औरतें
वास्तव में बड़ी नही होती
होती हैं वे अपने मर्दो
के अधीन ....
दिखावे की दुनिया में
रम जाती हैं ...
बना लेती हैं खुद को
संजी, सवरी एक खूबसूरत
गुड़िया ....
जो अपनी चमकती त्वचा
से लोगो को खिंचती है अपनी तरफ
और हँसती है अंदर से उजड़ी हँसी
दिखता है जैसे है
सबकुछ उसके हाथ ...
दिखाई देती है आत्मनिर्भर,
निर्भीक, ऊर्जावान और
बोलती है अंगरेजी ...
अंदर से  बेबस,असहाय
पाती है खुद को
जब होती है अकेले अपने कमरे में
अपने बिखरे अस्तिव के साथ ...
रोती भी नही सिबुक कर रह जाती
है अंदर ही अंदर
कही आंखे सूज गयी तो क्या कहेगीं
बाहर संवेदना विहीन बड़े लोगो से ..
लोग जान लेंगे वो कमजोर है
क्या पति से मार भी खाती है
और सुबह उठ कर उसी के साथ आती है
ऑफिस काम पर ... अच्छे कपड़ो के बीच
अपने मुर्दा शरीर को लेकर और महंगे मेकअप
से छुपा लेती है हर आँसु और सिकन ...
कमर में हाथ डाले उसका पति उसके
कानों में बुदबुदाता हैं अंगरेजी के गाली
और कहता है हँसने की एक्टिंग भी नही आती तुम्हें
और वो सबकी तरफ देख कर बेबाक और खोख़ली मुस्कान हँसती है
और इतराती है अपने आप पर ...