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कविता: अक्षय (सुनीता कुमारी, पूर्णियाँ, बिहार)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “सुनीता कुमारी की एक कविता  जिसका शीर्षक है “अक्षय”: 

क्षय और अक्षय ,
यह दो शब्द ही,
आधार बना हैं ,जीवन का,
जो अक्षय हैं,
वह प्रत्यक्ष भी हैं।
शाश्वत हैं, अविनासी हैं।
युगो युगो से,
कितनी ही सभ्यताओ का,
वह साक्षी हैं।
प्रत्यक्षदर्शी भी हैं।
 
हँसता होगा वह नित्य हमपर।
कहता होगा हँस हँस  कर,
जो जीवन दिया तुम्हे
उसे  सही जियो ना?
क्या धन वैभव ही उदेश्य तुम्हारा?
जिसके आगे मानवता हारा।
मैं तो अक्षय हूँ ,
अक्षय ही रहूगाँ ,मिट भी गया,
फिर भी मैं रहूँगा।
तुम अपने जीवन का सोचो ना।
 
तुम क्षय वाली रचनाएँ हो।
जीवन में सिमित समय  हेतु ,
यह जीवन लेकर धरती पर आए हो।
कुछ प्रयोजन हैं,
कुछ उदेश्य हैं,
तुम्हारे इस जीवन का।
उसे पूरा करना ही मात्र,
यह क्षयी सिमित जीवन मिला।
फिर भी भुलावा में आकर ,
क्यों?
अक्षय को अक्षय बनाते हैं?
 
नादान परिदें बनकर तुम
खो जाते हो जीवन भ्रम  में।
जो भी मिला इस धरती पर,
सब अक्षय समझ अपनाते हो।
एक एक कर धीरे धीरे  ,
सब को अक्षय बनाते हो ।
झोंक देते हैं सारा जीवन,
खुद को अक्षय बनाने में।
 
सुकून के कुछ पल भी मिलें तो,
सब चिंता में चला जलाते  हो ।
जो अक्षय हैं ,
वह अक्षय ही रहता,
यह क्षयी जीवन चला जाता हैं।
सारी कोशिशे करो केवल तुम
अपना जीवन बचाने में,
जितनी हैं,
जितना भी मिला हैं,
उसे लगा दो जीवन चलाने में।