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कविता: गाँव - शहर के बच्चे (ममता कुशवाहा, पिपरा असली, मुजफ्फरपुर, बिहार)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “ममता कुशवाहा की एक कविता  जिसका शीर्षक है “गाँव - शहर के बच्चे”: 

गाँव के बच्चे, शहर के बच्चे
सब होते हैं दिल के सच्चे
ना करना कभी इनमें भेद तुम
यह बच्चे होते हैं बड़े मासूम
 
बस फर्क इतना सा है इनमें
एक रहते  हैं गाँव में
तो दूसरे रहते हैं शहर में
पर है इनमें मासूमियत एक सा
 
करते शरारते एक - सा
निश्चल मन में भोले - भाले
गाँव के बच्चे, शहर के बच्चे
सब होते है मन के अच्छे
 
धूलमिट्टी से खेल कर
बड़े होते हैं ही गांव के बच्चे
तो शहर वालों को भी मिलते
खिलौने बने मिट्टी वाले ...
 
और जब भूख लगती बच्चों को
तो दौड़े - दौड़े भागते जाते
माँ की आंचल की ओर
दोनों रोते हैं एक जैसे .....
 
गाँव के बच्चे, शहर के बच्चे
निस्वार्थ मन के ये बच्चे
होते  है कुम्हार की मिट्टी के जैसे
ढल जाते हैं हर सांचे में,
 
इसीलिए हम कहते तुमसे
दो इन्हें हमेशा सुविचार
करो हमेशा सुव्यवहार इनसे
गाँव - शहर के सब होते एक जैसे है।