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कविता: जुगनू और सूरज (डॉ. अवधेश कुमार “अवध”, मैक्स सीमेंट, मेघालय)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “डॉ. अवधेश कुमार अवध की एक कविता  जिसका शीर्षक है “जुगनू और सूरज”:

 
अब दिनकर को धौंस दिखाते हैं  जुगनू,
अंधकार   में    हमीं   उजाला करते हैं।
नाहक तुम अपना अधिकार जताते हो,

युगों - युगों  से  हम जलते हैं, मरते हैं।।
 
आँख  मूँदते  हम  तो  ये  रातें होतीं,
आँख खोलने से ही दिन हो जाते हैं।
धरती   का  सर्वस्व  हमारी  मुट्ठी में,

चंदा - तारे  हमको  शीष झुकाते हैं।।
 
जगत नियंता, शक्तिमान हम हैं सक्षम,
तुम लम्पट, बंदर के प्रथम निवाले हो।
जाओ, जाकर डूब मरो जग से बाहर,

हम अपना साम्राज्य बढ़ाने वाले हैं।।
 
हँसकर  थोड़ा  ताप बढ़ाया सूरज ने,
प्रभाकीटगण असमय भस्म लगे होने।
संगी - साथी  भाग  छुप गए  कोटर में,
क्षण भंगुर जीवन की आस लगे खोने।।
 
बिना काम के गाल बजाना ठीक नहीं,
सबके अपने पृथक दोष - गुण हैं होते।
समय एक - सा नहीं किसी का भी रहता,

धीर - वीर इस हेतु नहीं धीरज खोते।।