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कहानी: अंतिम बार (महेश कुमार केशरी, बोकारो, झारखंड)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “महेश कुमार केशरी की एक कहानी  जिसका शीर्षक है “अंतिम बार ":

" बाबू, ई प्योर शीशम के लकड़ी हौ l चमक नहीं देखत हौ , और हल्का कितना हौ  लईकन सब पचासों साल बैठी तबो कुछ ना होई l " सीताराम बढ़ई की कही   ये बातें जैसे लगती हैं कल की ही  बात  हो , लेकिन, इस बात को सुने अवधेश को सालों हो गये  l

अवधेश ने कमरे को एक बार फिर निहारा l करीने से सजे हुए बेंच और टेबल,  जिस  पर जगह - जगह धूल जम गई थी l सामने लगी  ट्यूबलाइट उसको जैसे मुँह चिढ़ा रही  थी  l वो अपने अवचेतन में कहीं गहरा धंँसता चला गया l आज से दस साल पहले जब उसने ये कोचिंग इंस्टीटयूट  शुरू किया था l ये सोचकर की जो तकलीफ उसे गाँव में उठानी पड़ी है  l वो तकलीफ आसपास के लोगों को नहीं उठानी पड़े  l वो, शिक्षक ही बनेगा l कितना अच्छा तो पेशा है l समाज में लोग कितना सम्मान देते हैं  l सब लोग प्रणाम सर..... प्रणाम सर  कहते नहीं थकते, और, उसे शुरू से किताबों से कितना लगाव रहा है  l खुद भी पढ़ो और दूसरे लोगों को भी शिक्षित करो , लेकिन, इधर कोरोना के कारण पिछले एक - सवा साल से कोचिंग बंद था  l  सरकार सब कुछ खोलने की अनुमति देती है, लेकिन कोचिंग इंस्टीटयूट पर जैसे उसे पाला मार जाता है l जिम, रेडिमेड, शाॅपिंग माॅल, बस,  ट्रेन, हवाई जहाज  सब खुल गये हैं , लेकिन, सरकार को पढाई से ही चिढ़ है l कोचिंग वाले  टैक्स नहीं देते ना! इसलिए भी सरकार इन लोगों को कोचिंग इंस्टीटयूट खोलने की अनुमति नहीं देती l अगर वो भी कोई जिम या शाॅपिंग माॅल चलाता तो क्या सरकार उसको रोक लेती ? नहीं  बिल्कुल नहीं  ! 

वो बहुत कोशिश करता रहा कि वो अपना कोचिंग इंस्टीटयूट बंद ना करे, लेकिन, घर में छोट- छोटे बच्चे हैं l उनके खाने पीने के लाले पड़ गये हैं l पिताजी  को डाॅक्टर को दिखाना है l दिसंबर आधा गुजर गया है l माँ का स्वेटर भी लेना है  l ठंढ़ से काँपती रहती है l आखिर बूढ़ी काया में ताकत ही कितनी होती है l

स्वेटर जगह - जगह से फट गया है , और स्वेटर के कुछ हिस्से तो छीजकर आर- पार  भी दिखने लगे हैं l कई दिनों से माँ कह रही है l घर के अंदर तो पहन सकती हूँ, लेकिन, बाहर निकलते मुझे शर्म आती है l  आखिर, लोग क्या कहेंगे  l एक शिक्षक की माँ  फटा हुआ स्वेटर पहने हुए है   ! रमा ने भी कई बार शाॅल के लिए तगादा कर दिया है  l कहती है आँगनबाड़ी जाते हुए ठंढ़ लगती है l अब रमा को शाॅल  भी एक दो दिन में  खरीदकर देता हूँ  l  आखिर रमा की  आँगनबाड़ी वाली नौकरी ना होती तो आज वे लोग कहीं भीख माँग रहे होते  l उसको मिलने वाले छह हजार रूपये से ही तो घर अब तक चल रहा है l नहीं तो इस आपदा काल में कौन किसकी मदद करता है ? सबसे जरूरी काम है पिताजी को डाॅक्टर को दिखाना l उनकी खाँसी रुकती ही नहीं  l आखिर, कितने दिनों तक मेडिकल से लेकर सिरप   पिलाई जाये l सारी कंपनियों के सिरप एक- एक करके देख लिए l जितने रूपये सिरप और गोलियों पर खर्च किये l उतने में तो किसी अच्छे डाॅक्टर को दिखला देते, लेकिन, डाॅक्टर भी पाँच सौ से कम में नहीं  मानेगा  l कोरोना के समय में एक तो डाॅक्टर सामने से देखते नहीं l आॅनलाइन दिखलाना है तो दिखलाओ नहीं तो जै राम जी की l

उसने बेंच को छुआ तो धूल के साथ - साथ जैसे उसके हाथ में अतीत के खुरचन भी आ गये l  टीचर्स डे  और वसंत पंचमी पर  कितना सजाते थे छात्र इस इंस्टीटयूट को l  कैसा लकदक करता था यही इंस्टीटयूट छात्र - छात्राओं के हँसी ठहाकों से   l

अवधेश को कमरे के एक- एक चीज से प्रेम था  l उसने इंटीरियर डिजाइनर से अपने इंस्टीटयूट को सजवाया था l गुलाबी पेंट,  बढ़ियाँ कार्पेट, अच्छी कुर्सी और मेज l शानदार ब्लैकबोर्ड, टेबल के ऊपर सजे भाँति- भाँति के पेन  l कैसे वो सफेद कमीज और काली पैंट पहन कर नियम से सुबह छह बजे ही नाश्ता- पानी करके चल देता था l  फिर, देर रात गये ही घर लौटता  l उसने नीचे ऊपर सब मिलाकर तीन - चार कमरे ले रखे थे l दो तीन और लड़को को भी रख लिया था l पहले काम के घंटे बढ़ते गये l उसके अंदर एक जूनून सा छाने लगा l फिर, छात्रों की बढ़ती संख्या को  देखकर उसने रूम बढ़ा दिये  l फिर, टीचर भी बढ़ाने पड़े l मिला जुलाकर साठ सत्तर हजार रूपये  महीने में वो कमा ही लेता था  l फिर, धीरे - धीरे नई तकनीक आने से उसने  कुछ कम्प्यूटर  भी  खरीद लिये और  भी कई कमरे किराये पर  ले लिये थे l और स्टाफ़ बढाया l खूब मेहनत करने लगा l वो अपने साथ- साथ और लोगों को भी रोजगार दे सकता है l  ये सोचकर ही उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था , और  हमेशा  उसे इस बात की  खुशी रही l सब लोग हँसी खुशी से  जी रहे थें l तभी कोरोना ने दस्तक दी और सबकुछ जहाँ का तहाँ जमकर रह गया l रोज सड़कों पर दौड़ने वाली  उसकी स्कुटी घर में एक किनारे  खड़ी हो  गई l  कभी - कभार कोई सामान लाने जाना होता तो, स्कुटी के भाग खुलते और वो रोड़ पर दौड़ती  l नियमित आनेवाले टीचर्स अब दिखने बंद हो गये  l पहले उसने औने - पौने दाम में कम्प्यूटर बेचे l शुरूआती दौर में तो तीन - चार महीने का लंबा लाॅकडाउन लगा l  अचानक से आने वाले पैसे आने बंद हो गये l खर्च ज्यों- का -त्यों l बहुत बचत करने की आदत शुरू से नहीं  रही l पैसा आता था तो पता नहीं चलता था  l कितना भी खर्च कर लो l कोई फर्क नहीं पड़ता था , लेकिन, अचानक से पैसे आने बंद होने से दिमाग जैसे सुन्न पड़ने लगा l जरुरी चीजों को तो नहीं टाला  जा सकता था , लेकिन, गैर जरूरी चीजों पर सख्त पाबंदी लगा दी गई l चाऊमिन, पिज़्ज़ा मोमोज़ सब बंद l

फिर, इंस्टीटयूट के मकान मालिक का तगादा बढ़ने लगा l नीचे के अतिरिक्त लिए गये कमरे को गैर जरूरी समझकर छोड़ दिया गया  l ये सोचकर कि पता नहीं कितना लंबा लाॅकडाउन चलेगा , और हर महीने का किराया भी चढ़ता जायेगा l सारे - के सारे कम्प्यूटर पहले ही बिक चुके थें l कमरे वैसे भी खाली ही थे  l सारे फर्नीचर को दो कमरों में समेटा गया, और कमरों की चाभी  साल  भर  पहले ही मकान मालिक को सौंप दी गई  l ये सोचकर कि आज नहीं तो कल जब सब कुछ ठीक - ठाक हो  जायेगा तो फिर, से कमरे को किराये पर ले लिया जायेगा l लेकिन, जब दूसरी लहर आयी और फिर, डेढ़ दो महीने का लाॅकडाउन लगा , तो रमा जैसे बिफरती हुई बोली - " क्या, कोचिंग इंस्टीटयूट के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है  ? पेपर बेचो, सब्जी बेचो, फल बेचो कुछ भी करो l लेकिन, अब घर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती , और मेरी आँगनबाड़ी  की कमाई  से कुछ होने जाने वाला नहीं है l  वो ऊँट के मुँह में जीरा का फोरन जैसा साबित हो रहा  है  l तुम  जल्दी कुछ करो l नहीं तो मैं बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाऊँगी l "  और यही सोचकर अवधेश ने ये फैसला किया था, कि अब और इंतजार करना मूर्खता के  सिवाय कुछ नहीं है  l हो सकता है सालों कोरोना खत्म ना हो l तब तो सालों उसका इंस्टीटयूट बंद रहेगा l रमा ठीक कहती है l मुझे अपना इंस्टीटयूट बंद करके कोई और काम करना चाहिए  l नहीं तो घर कैसे चलेगा  ? और यही सोचकर उसने एक जरूरत मंद संस्था को बहुत कम कीमत पर अपना फर्नीचर बेचने का फैसला किया था l

" भैया, आॅटो वाला आ गया है , सामान  लेने l "   रघुवीर ने टोका तो  अवधेश अतीत के नर्म बिस्तर से हकीकत की ठोस जमीन पर गिरा l

" हुँ... हाँ... कौन रघुवीर अच्छा आॅटो वाला आ गया  l  चलो अच्छा है l "

अवधेश के भीतर कुछ पिघला, कार्पेट, दीवार, टेबल या छत या कि  दस साल का सुहाना सफर और उसकी आँखे भींगनें लगी l उसने आखिरी बार कमरे को गौर से निहारा l लगा जैसे  सब  कुछ छूटा जा रहा  है, और वो किसी भी कीमत पर उसे नहीं छोड़ना  चाहता  l

रघुवीर ने पूछा -  " क्या हुआ भईया..? "

लेकिन, अवधेश, रघुवीर की बातों का कोई जबाब नही दे सका  l

बस भर्राये गले से बोला  - " कुछ नहीं रघुवीर.. l "

शाम का धुँधलका गहराने लगा था l  उसे लगा कमरे को पलटकर  अंतिम बार देख ले  l लेकिन, उसकी हिम्मत नहीं पड़ी  l धीरे - धीरे  नीम अंधेरे में वो सीढ़ियों से नीचे उतर गया l