पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “डॉ• अवधेश कुमार अवध” का एक गीत:
है समय की सरहदों पर भीड़ कैसी?
क्या किसी ने फिर समय को मात दी है?
याचना के द्वार पहुँचाती यकायक।
पेट में जठराग्नि जब हुंकार भरती-
छोड़कर सब साथ चल जाते अचानक।
भेद अपने औ पराये का अवध यूँ-
खोदकर खाईं मुसीबत बाँट दी है।।
देव दानव डीह डामर पूज आयी।
गाँव के मुखिया, विधायक मंतरी के-
संतरी के पाँव पर माथा टिकायी।
अंत में भूगोल के हर ओर जाकर-
हाथ से हर छोर उसने नाप दी है।।
प्यार से टॉफी दिखाओ तो लपकती।
क्या पता उसको कि वो है हॉट सैक्सी-
पापियों की वासना कैसे समझती!
चींख उसकी गूँजकर दम तोड़ देती-
जिंदगी की डोर फिर से काट दी है।।
महल में सबका नहीं रनिवास होता।
झोपड़ी की देहरी पर मुकुट झुकते-
गर झुकाने हेतु श्रम विश्वास होता।।
जब हरी झंडी मिली तब नारियों ने-
शत्रु के सीने पे झंडा गाड़ दी है।।
चाँद पर जाकर झुलौना झूल आती।
एक कर कर्तव्य दूजे हक की खातिर-
गर्भ से शमशान तक वो घूम आती।।
मानना होगा अवध सारे जगत को-
नारियों ने घूँघटों को फाड़ दी है।।