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फ्री ऑफर का जादू: लोग मुफ्त में कंघी भी ले लेंगे भले गंजे हों


फ्री ऑफर का जादू: लोग मुफ्त में कंघी भी ले लेंगे भले गंजे हों
--- संजय अग्रवाला, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल

“मुफ्त की चीज़ पर दिल फिदा,
जेब खाली हो जाए तो क्या हुआ।”


आज के उपभोक्ता व्यवहार को अगर एक लाइन में समझाना हो तो यही कहा जा सकता है कि "Free" शब्द सुनते ही आदमी की सोच का गणित बदल जाता है। मार्केटिंग मैनेजमेंट के सबसे पुराने और सबसे कारगर हथियारों में से एक है फ्री ऑफर। यह सिर्फ एक रणनीति नहीं बल्कि मनोविज्ञान का खेल है। ग्राहक को भले ही उस चीज़ की ज़रूरत न हो, लेकिन मुफ्त में मिल रही है तो उसे अपनाने की संभावना लगभग सौ प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

सोचिए, गली–मोहल्ले के नुक्कड़ पर खड़े होकर अगर कोई कहे कि “फ्री सैंपल है, लीजिए” – तो क्या आप बिना देखे निकल जाएंगे? शायद नहीं। भले ही आपको उसकी ज़रूरत न हो, लेकिन दिमाग कहेगा – “चलो रख लेते हैं, कभी काम आ जाएगा।” यही है वह जादू जो फ्री ऑफर पैदा करता है। मनोविज्ञानियों का मानना है कि जब इंसान को कोई चीज़ मुफ्त में मिलती है तो उसके दिमाग में “रिस्क ज़ीरो” का अलार्म बजता है। मतलब उसे लगता है कि कोई घाटा नहीं है, बस फायदा ही फायदा है। और यहीं से कंपनियां उपभोक्ता की इसी कमजोरी को अपनी सबसे बड़ी ताक़त बना लेती हैं।

भारत में ही देख लीजिए। मिठाई की दुकान हो या मोबाइल रिचार्ज, हर जगह "एक के साथ एक फ्री" का बोर्ड टंगा होता है। त्योहारों के सीज़न में तो जैसे "फ्री ऑफर" का बाढ़ आ जाता है – साबुन के साथ डिब्बा, बिस्कुट के पैकेट के साथ कप और टूथपेस्ट के साथ टूथब्रश। मज़े की बात यह है कि ग्राहक अक्सर मूल चीज़ की क्वालिटी या कीमत पर ज्यादा ध्यान नहीं देता, बल्कि यह सोचकर संतुष्ट हो जाता है कि “कम से कम कुछ तो फ्री में मिल रहा है।”

फ्री ऑफर का यह जादू सिर्फ छोटे-मोटे सामान तक सीमित नहीं है। बड़े-बड़े ब्रांड भी इसी रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। कार कंपनियां गाड़ी खरीदने पर मुफ्त सर्विस देती हैं, मोबाइल कंपनियां डाटा पैक पर मुफ्त एसएमएस देती हैं और ई-कॉमर्स कंपनियां तो "फ्री डिलीवरी" के नाम पर पूरा मार्केट जीत चुकी हैं। "फ्री डिलीवरी" असल में मुफ्त नहीं होती, उसका खर्च प्रोडक्ट की कीमत में पहले ही जोड़ दिया जाता है। लेकिन ग्राहक के दिमाग में यह अहसास बैठ जाता है कि उसे कुछ फायदा हो रहा है। यहाँ तक कि डिजिटल युग में तो "फ्री" का जादू और भी गहरा हो गया है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, गूगल – ये सब अपने आप में मुफ्त सेवाएँ हैं। कोई उनसे पैसा नहीं लेता, लेकिन इसके बदले कंपनियां हमारे डेटा और ध्यान का कारोबार करती हैं। यानी असली कीमत हमसे ली जाती है, लेकिन हमें लगता है कि सबकुछ मुफ्त है। यही तो आधुनिक मार्केटिंग की सबसे बड़ी चाल है।

अगर इतिहास में जाएँ तो मुफ्त ऑफर का कांसेप्ट नया नहीं है। पुराने समय में भी हाट-बाजारों में दुकानदार मुफ्त में थोड़ी मात्रा में चीज़ चखने के लिए देते थे। जैसे मसाले बेचने वाला थोड़ा सा मसाला हाथ में रख देता था, ताकि ग्राहक उसकी खुशबू महसूस करके खरीद ले। मिठाई वाला ग्राहक को ‘टेस्टिंग’ के नाम पर छोटा टुकड़ा दे देता था। उस जमाने में इसे “मुफ्त चखना” कहते थे, आज इसे आधुनिक भाषा में “सैंपलिंग स्ट्रैटेजी” कहा जाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले यह स्थानीय स्तर पर होता था, अब यह एक ग्लोबल मार्केटिंग टूल बन चुका है। आज के जमाने में ग्राहक खुद को बहुत स्मार्ट समझते हैं। वह सोचते हैं कि वह कंपनी की चाल को समझते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि मार्केटिंग वालों का गणित हमेशा एक कदम आगे होता है। जब आप "एक के साथ एक फ्री" में प्रोडक्ट लेते हैं, तो अक्सर आपने उतना ही खर्च किया होता है जितना दोनों पर अलग-अलग करने पड़ता। कंपनियों को घाटा नहीं होता, बल्कि बिक्री बढ़ जाती है।

मजेदार बात यह है कि मुफ्त ऑफर से ग्राहकों में “खुशी का हार्मोन” भी एक्टिव हो जाता है। रिसर्च बताती है कि फ्री चीज़ मिलने पर इंसान के दिमाग में डोपामिन रिलीज़ होता है, जो वैसा ही अहसास देता है जैसा लॉटरी जीतने या गिफ्ट मिलने पर होता है। यानी यह सिर्फ आर्थिक फायदा नहीं बल्कि भावनात्मक संतुष्टि भी देता है। त्योहारों का उदाहरण लीजिए। दिवाली, होली, ईद या क्रिसमस – हर त्योहार में उपभोक्ता का मूड खर्च करने का होता है। ऐसे समय पर कंपनियां "फ्री ऑफर" को हथियार बनाकर खरीदारी को और बढ़ा देती हैं। ग्राहक जब गिफ्ट पैक या बोनस आइटम देखकर खरीदता है तो उसे लगता है कि उसने "स्मार्ट डिसीजन" लिया है, लेकिन असल में वह मार्केटिंग के जाल में फंस चुका होता है। फ्री ऑफर का असर इतना गहरा है कि कई बार लोग उस प्रोडक्ट को भी खरीद लेते हैं जिसकी उन्हें जरूरत ही नहीं। मान लीजिए किसी दुकान पर साबुन के साथ कटोरी फ्री मिल रही है। अब अगर ग्राहक के घर में पहले से ही पर्याप्त साबुन हैं, फिर भी वह अतिरिक्त साबुन खरीद लेगा सिर्फ उस कटोरी के लालच में। यही मनोविज्ञान कंपनियों के बिजनेस मॉडल को मजबूत करता है।

ऑनलाइन दुनिया में भी यही पैटर्न है। कई ऐप “फ्री ट्रायल” का विकल्प देते हैं। एक महीने मुफ्त में इस्तेमाल कीजिए और फिर सब्सक्रिप्शन शुरू हो जाएगा। लोग पहले तो खुशी-खुशी "फ्री" का फायदा उठाते हैं, लेकिन बाद में जब ऑटो-डिडक्शन होता है तो पता चलता है कि मुफ्त में लिया गया ऑफर असल में कितना महंगा पड़ा। लेकिन यहाँ सवाल यह है कि क्या यह फ्री ऑफर हमेशा ग्राहकों के लिए फायदे का सौदा होता है? इसका जवाब है – नहीं। कई बार मुफ्त ऑफर की वजह से लोग अपनी वास्तविक ज़रूरत से ज्यादा खर्च कर बैठते हैं। इससे बचने के लिए ज़रूरी है कि ग्राहक “ज़रूरत” और “लालच” में फर्क समझे। दूसरी तरफ मार्केटिंग मैनेजमेंट के लिहाज से देखें तो यह रणनीति सबसे सफल है। यह न सिर्फ बिक्री बढ़ाती है, बल्कि ब्रांड की पहचान भी मजबूत करती है। ग्राहक जब बार-बार मुफ्त में प्रोडक्ट या सेवा अनुभव करता है, तो उसके मन में उस ब्रांड के प्रति भरोसा बढ़ता है। यही कारण है कि आज लगभग हर इंडस्ट्री – चाहे वह FMCG हो, टेक्नोलॉजी हो, या सर्विस सेक्टर – फ्री ऑफर को अपनी मार्केटिंग का अहम हिस्सा मानती है। भविष्य में यह ट्रेंड और भी बढ़ने वाला है। Artificial Intelligence और Data Analytics के ज़माने में कंपनियां ग्राहकों की पसंद-नापसंद को इतनी बारीकी से समझ पाएंगी कि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग पर्सनलाइज्ड "फ्री ऑफर" डिजाइन किए जाएंगे। यानी गंजे को कंघी मुफ्त में नहीं मिलेगी, बल्कि उसके लिए शायद शेविंग क्रीम या टोपी फ्री होगी।

यह समझना ज़रूरी है कि "फ्री ऑफर" की दुनिया असल में "Nothing is truly free" के सिद्धांत पर चलती है। कंपनियां हमेशा अपने खर्च की भरपाई कर लेती हैं। फर्क बस इतना है कि हम ग्राहकों को वह पलिक खुशी मिल जाती है कि हमने कुछ बिना दाम दिए हासिल किया। तो अगली बार जब आपको कोई कहे – “साबुन खरीदिए, बकेट फ्री पाइए” या “डेटा पैक लीजिए, कॉल फ्री पाइए” – तो एक बार सोचिए कि सच में क्या आप फ्री में ले रहे हैं, या फिर यह आपके ही पैसे का घूम-फिरकर खेल है। लेकिन हाँ, यह भी सच है कि मार्केटिंग की इस रंगीन दुनिया में “फ्री” शब्द सुनकर मुस्कुराना हर किसी को अच्छा लगता है। चाहे आप गंजे हों और कंघी आपके किसी काम की न हो, फिर भी अगर मुफ्त मिले तो दिल कहता है – “ले लो, क्या पता कभी काम आ ही जाए।”

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