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कविता: मेरी पीड़ा (रविकान्त सनाढ्य, भीलवाड़ा, राजस्थान)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रविकान्त सनाढ्य की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मेरी पीड़ा": 
 
 
मैं सोन-चिरैया, गौरेया  या चिड़ी बया ?
ना बची कहीं भी रंच दया !
 
अब कहीं - कही पर मिलती हूँ ,
मैं कर्मठ हूँ अति सृजनशील,
खुद नेह- नीड़ को बुनती हूँ !
 
घर-आँगन में घुल जाती थी
मेरी मीठी औ मधुर चहक,
मैं राग प्रेम के गाती थी
अपनी मस्ती में फुदक-फुदक !
 
तिनका - तिनका  मैं  ले आती
अपने बच्चों को दुलराती !
मैं सबको मंगल-गान सुना
जी सबका ही थी बहलाती !
 
पर मानव - स्वारथ -वशीभूत
लालच में इतने भरे हुए ,
पर्यावरणी -सुध भूल गये ।
 
बहके धन के लालच में वे
बनते  थे उनके महल नये !
अब पेड़ कटे, जंगल विलुप्त
बंगलों में मेरे नीड़ गये ।
 
बैठक में सज्जा कर ज़हीन
मुझको कर बैठे गृहविहीन !
अस्तित्व लुप्तप्रायः मेरा ,
हे मानव, कुछ कर लो विचार,
क्यों करते हो मेरा शिकार ?
 
फिर भी ना मैं  हिम्मत हारी
जीवन- संगीत सुनाती हूँ ।
अस्तित्व हुआ है लुप्तप्राय
 
अब कहीं -कही दिख जाती हूँ ।
मेरी पीड़ा को समझो तुम,
जीवन-संगीत सुनाती हूँ ! !