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कविता: जीवन का रंगमंच (प्रियंका कटारे 'प्रिराज', ग्वालियर, मध्यप्रदेश)

 

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार प्रियंका कटारे  'प्रिराज' की एक कविता  जिसका शीर्षक है “जीवन का रंगमंच:

जीवन के रंगमंच पर देखो-
कितने पुतले अभिनय करते,
नित नयी भूमिकायें बनती,
नित नए अहसास संवरते ।
 
लेकिन फिर भी मन का कोना,
सूना रहता, रूठा रहता।
इसके भीतर सम्भवतः कुछ,
तिनका तिनका टूटा करता।
 
सोचा ये तो अंतर्मन है,
कठिन भले हो, यह जीवन है।
 
कुछ गतियाँ हैं, कुछ गतिविधियां हैं
जो होना है वही होता है,
अरे मन! तू तो मूरख है ,
जो क्षण- क्षण में रोता है।
 
जीवन के रंगमंच पर देखो-
खुशियों की हरियाली छाती,
किसकी डोर कहाँ कब खींचती
और किसे कब कहाँ ले जाती
 
लेकिन फिर भी कुछ अपने,
हृदय द्वार खटकाते रहते
जो न होकर भी अपने होने का
पल- पल अहसास दिलाते रहते।
 
सोचा ये तो मोहबन्धन है,
शायद यही, यही जीवन है।
 
 
कुछ गतियाँ हैं, कुछ गतिविधियां हैं
जो होना है वही होता है
अरे मन! तू तो मूरख है
जो क्षण- क्षण में रोता है।
 
जीवन के रंगमंच पर देखो-
दुख के बादल मंडराते रहते
कभी अश्रु बनकर वो गिरते,
कभी हृदय दुखाते रहते ।
 
लेकिन फिर भी कुछ खुशियां,
मन को सदा प्रफुल्लित करतीI
इस मैन की वीना के ,
टूटे तारों को सुरमित करतीं।
 
सोचा ये तो सुर संगम है,
कितना मधुर ये जीवन है।
 
कुछ गतियाँ हैं, कुछ गतिविधियां हैं,
जो होना है, वही होता है।
अरे मन! तू तो मूरख है,
जो क्षण-क्षण में रोता है।
 
जीवन के रंगमंच पर देखो
मन में कितने भाव उमड़ते,
कुछ कविता बन खिल उठते।,
कुछ मन कोने में सड़ते।
 
लेकिन फिर भी जीवन का मधुवन
सदा हरा-भरा नहीं रहता।
क्यों मधुवन का पुष्प हमेशा,
खुशियों और दुखों को सहता।
 
सोचा ये तो सुख दुख का संगम है,
पर ... क्यों ऐसा यह जीवन है?

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