पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद
पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रंजना बरियार की एक कहानी जिसका
शीर्षक है “हनीमून":
....और बस चल पड़ी...उसने पीछे मुड़कर खिड़की के बाहर देखा...उसके पति अनिकेत हाँथ हिलाकर बाय कर रहे थे...पर बिलकुल रुआँसे से...बिल्कुल ऐसा ही “वो देखो मुझसे रूठ कर मेरी जान जा रही है...”संजिता अपनी शादी के बाद पहली बार ससुराल और पति की कहानी सुना रही थी, तब मेरी शादी नहीं हुई थी, मुझे उसकी क़िस्मत पे ईर्ष्या सी होने लगी थी!
अनिकेत सुहाग रात में पुरानी फ़िल्मों के रोमांटिक गानों के दो दो लाइन गा कर उसे रात भर सुनाते रहे थे...मानों सभी गानों का सार वो संजिता के अन्त: स्थल की भित्तियों पर बिछा देना चाहता हो! पुरूष स्पर्श.. आँखों में सागर सी गहराई...मानो एक साथ हज़ारों फूल उसके दामन में खिल गये हों...उन फूलों को उसे सम्भालना है...ख़ुशबू संजो कर रखना है..इन अहसासों ने मानो उसे इत्र उड़ेलकर प्रेम रस में सराबोर कर दिया हो!
वो हनीमून पे शिमला की वादियों में घूम रही थी,तभी पटना के एक प्रतिष्ठित महा विद्यालय से व्याख्याता हेतु नियुक्ति पत्र उसके पिता को प्राप्त हुआ....उनकी ख़ुशी की सीमा नहीं थी...पर समस्या ये थी कि दो सप्ताह के अंदर योगदान की अनिवार्यता थी!और संजिता तब हनीमून पे थी! अंकल ने तुरंत अपने बेटे को नियुक्ति पत्र के साथ उसके ससुराल भेजा, ताकि पहुँचते ही वो पटना आ सके और समय पर योगदान दे सके! तब ,
तीस वर्ष पूर्व, वाट्सऐप, ईमेल वग़ैरह का जमाना नहीं था! उसी दिन संजिता हनीमून से वापस आ गई! अच्छी नौकरी प्राप्त करना उसके जीवन का लक्ष्य था, सो वो ख़ुश तो बहुत हुई... पर अनिकेत को छोड़कर जाना उसे आकाश से नीचे गिर जाने जैसा लग रहा था...ख़ैर जाना तो था ही... बस के खुलने का समय रात के नौ बजे का था, बस स्टैंड अनिकेत उसे छोड़ने आये थे।सामान बस में रखने के बाद थोड़ी देर वो नीचे अनिकेत के साथ खड़ी होकर उनकी मदहोशियाँ को पी लेना चाहती थी..अचानक घड़ी की सूई ने 8.58 दिखाया..संजिता ने विदाई लेकर जैसे ही बस में चढ़ना चाहा..अनिकेत ने उसे खींचते हुए कहा “ अभी तो दो मिनट बाक़ी हैं”उसे लगा उसके सीने से लग के बस वहीं रह जाए..पर..!
बस खुल गई... वो पटना में नौकरी करने लगी, छ: महीने बाद उसने राँची स्थानांतरण भी करवा लिया था।आज मैं उससे तीस वर्षों बाद मिल रही हूँ.. मैंने पूछा “कैसी है तू? तेरे बच्चे और पति? तेरा अभी तक हनीमून ही चल रहा होगा?” उसने सर झुका लिया..और कहा “बच्चे विदेशों में सेट्ल्ड हैं...बस,हमलोग भी अच्छे हैं” मैंने कहा “वाह बहुत खूब, तुम्हें लक्ष्य पाने से भला कौन रोक सकता है!... पर तुम्हारा हनीमून..?” उसने कहा “नहीं मेरी दोस्त, मेरी जान, हम दोनों सेवा निवृत्त हो गये हैं... गहरी शांति व्याप्त है..अब कोई उथल-पुथल नहीं”