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कविता: दशहरा (बिना जे सचदेव, मोरबी, गुजरात)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार बिना जे सचदेव की एक कविता  जिसका शीर्षक है “दशहरा”:

मैं तो रावण हूँ,
तीनों लोकों मैं मेरे जैसा वीर कोई नहीं।
सती मंदोदरी  का पति कहलाता मैं हूँ ।
मेघनाथ का पिता था मैं,
कुंभकर्ण  का अग्रज था,
राजनीति का राजा भी मैं हूँ ।
मेरा जैसा जगमें दूजा कोई नहीॆ।
 
रावण कभी मरता नहीं,
अमरता का वरदान है,
रावण मर कर जिंदा हो जाता है,
ऊसने किया मर्यादा का ऊळ्लघन,
जो रावण हममें बसा,
कोई खुद का या ऊनका करो दहन,
हर साल खुशी से करते हे रावण का दहन,
रावण तो फिरभी ज्ञानी था,
हम तो अपऩे अहंम मैं,
देखकर, सुनकर और, बोलकर
हर रोज एक नया रावण बनते हैं।
जब तक खुदमें बसी बूराई का,
अंत अपने हाथोसे करोगें,
जब हममें से कोई राम बनेगा,
तब जाके सहीमें होगा ,
रावण का दहन,
ओर खूशियोकी बारिश.
बुराई का खात्मा और,
सदा सत्य की जीत।
मैं भी दशहरा मनाना चाहती हूँ।