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कविता: आत्मा का विमोचन (गौरव नागरा, जगाधरी, यमुना नगर, हरियाणा)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार गौरव नागरा की एक कविता  जिसका शीर्षक है “आत्मा का विमोचन”:
 
इस जग के कोरे काग़ज़ पर, मैं एक सुखी स्याही हूँ,
क्या मैं उन्मादित राही हूँ?
 
जग जीवन की कायांतर शैली,
मेरी राहों में कांटे भरती है।
शूलों के तीखे अंगारों पर,
मधुबन की छाती जलती है।
जगती के अवसादित प्याले में, मैं ही एक त्राहि हूँ।
क्या मैं उन्मादित राही हूँ?
 
तेरा प्रथम द्वार ना उमड़ा,
मेरी क्रीड़ा ही लासानी है।
जगत मे कमली होती फिरती,
ये मेरी पेशानी - निशानी है।
तूं कृतज्ञवास है मेरा, जो मैं दीप्ति सहित ही छाई हूँ।
क्या मैं उन्मादित राही हूँ?
 
तूने ध्येय मेरी दृग कारकों से,
बरसों, और हर्षों ओर उखाड़ा है।
हर मुग्ध प्याले में जाकर,
तूने उस मादकता को उजाड़ा है।
तूने उच्छ्वास किया, उस रोदन को देख मैं आई हूँ।
क्या मैं उन्मादित राही हूँ?