पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार अंजना यादव की एक कविता जिसका शीर्षक है “सास भी मां बनकर बहू को पाला करती हैं”:
बीमार होने पर
रातों में जब अक्सर उठ उठ कर
तुम्हारे कमरे में जो जाया करती है हाल पूछने ।
सास भी उस दिन मा
बन बहू को एक बेटी बनाकर अपना प्यार लुटाया करती है।
अगली सुबह खुद
खाना भी बना लेती है
बिना कुछ कहे तुमको खाना भी दे आती है ।
बहू दवा खा लेना और साथ में पानी भी रख आती है।
फिर भी दिल ना
मानने पर तुम्हारे कमरे में जाकर
बुखार से तपते माथे को यू बार बार पट्टी करती है ।
सास भी उस
दिन मा बन बहू को एक बेटी बनाकर अपने
प्यार को बेहिसाब लुटाया करती हैं।
जब तुम्हारी हालत
बद से बदतर हो जाया करती है
खुद अपनी बेटी समझ कर तुम्हारे कपड़े भी वो धो डाला करती है ।
कि वो सिर्फ सास बन कर नहीं मा बन कर भी अपना फर्ज निभाया करती हैं ।
कि वो सास ही है जो मा बन कर बहू को पाला करती है।
तुम्हारे कहने
पर वो गर्मी के दोपहर में
चूल्हे की जलती आगो में भी वो
रोटी बनाकर लाया करती है ।
ले बेटा थोड़ा सा
ही खा ले जब वो बोला करती है।
की जब छोड़ देते
हैं तुम्हारा साथ सब
तब वो ढाल बनकर खड़ी रहती है
अपनी बहू समान बेटी के लिए ।
टूट कर बिखर जाती
है वो भी जब तुम्हें
अपनी जिंदगी से इस तरह हरता हुआ देखती है तो ।
फिर भी कोशिश
करती है वो
तुम्हें अपने पास यूं ही समेट कर जीने के लिए।
एक नई उम्मीद के
साथ तुम्हें जीने का हौसला दिया करती है हर बार वो ।
हा वो सास ही है
जो मा बन कर बहू को पाला करती हैं।
डॉक्टर के मना
करने के बाद भी जो
हर मंदिर ,हर अस्पताल में चक्कर लगाया करती है ।
थोड़ी सी आशा के
साथ फिर से वो डॉक्टर के पास जाया करती हैं।
बहू ठीक तो हो
जाएगी ना जब पूछा करती है
डॉक्टर के मना करने से ।
टूट कर बिखर जाती
है वो फिर भी
अंतिम विदाई की तैयारियां में जूट जाया करती है
ना जाने कहां से
लाती है वो इतनी हिम्मत
बहू को एक बार फिर से दुल्हन बनवाती है।
लगाकर माथे पर
टीका आखिरी बार हमेशा के लिए विदाई करती है वो ।
की फूट फूट कर अब
हर रोज रोया करती है
दिल में अब बस यादें ही लिए हर रोज जिया करती है वो ।
की हा वो सास ही
होती है जो मा बन बहू को पाला करती है।
तुम्हारे कमरे में जो जाया करती है हाल पूछने ।
बिना कुछ कहे तुमको खाना भी दे आती है ।
बुखार से तपते माथे को यू बार बार पट्टी करती है ।
खुद अपनी बेटी समझ कर तुम्हारे कपड़े भी वो धो डाला करती है ।
चूल्हे की जलती आगो में भी वो
रोटी बनाकर लाया करती है ।
तब वो ढाल बनकर खड़ी रहती है
अपनी बहू समान बेटी के लिए ।
अपनी जिंदगी से इस तरह हरता हुआ देखती है तो ।
तुम्हें अपने पास यूं ही समेट कर जीने के लिए।
हर मंदिर ,हर अस्पताल में चक्कर लगाया करती है ।
डॉक्टर के मना करने से ।
अंतिम विदाई की तैयारियां में जूट जाया करती है
बहू को एक बार फिर से दुल्हन बनवाती है।
दिल में अब बस यादें ही लिए हर रोज जिया करती है वो ।