पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार नरेंद्र सिंह की एक कविता जिसका
शीर्षक है “तो आज भी याद होगा”:
गाँव की सोंधी मिट्टी में कूदना उछलना
खेत की आली पर गिरना - फिसलना
बचपन की शरारतें और गली गली मटरगस्ती
बेफ़िक्र दुनिया से, मुफ़्त में मस्ती।।
तो आज भी याद होगा !
पीटो, डोलपता और कंचा
कबड्डी चिकनी और गुलीडंडा
छिपकर खेलना कौड़ी और ताश
पिता चाचा से पकडे जाने का अहसास।
तो आज भी याद होगा !
खेल में हार
पर होनेवाली तकरार
फिर बैर भाव को भूलना
दूसरे दिन फिर एक जगह जुटना।
तो आज भी याद होगा !
साग में नमक
मिर्च मिलाना
गमछी में कसकर बांधना
पोटली को बार बार पटकना
फिर धूनी को दमभर चखना,
तो आज भी याद
होगा !
चुपके से चना और
गेहूं उखाड़ना
कंटीली लकड़ियों पर उसे जलाना
इसे कहते थे होरहा लगाना
मुह हाथ दोनों काला कर खाना,
तो आज भी याद
होगा !
पोखर में लगाना
डुबकी और छलांग
जानते हुए भी दुष्परिणाम
वही पिता जी की डाँट
माँ की प्यार भरी चांट
फिर भरपेट खाना भात,
तो आज भी याद
होगा !
गाँव के पाँच
बरगद बड़ा
जो चार आज भी है खड़ा
भीषण गर्मी में वही मिलती थीँ छाँव
मानव और पशु का दुपहरिया का ठाँव
यह तो आज भी याद होगा।
गाँव के उत्तर
बसेड़
पश्चिम में पीपल के पेड़
रात और गर्मी दुपरहिया का पहर
दोनों जगहों पर जाने में डर
एक जगह सांप का बसेरा
दूसरी जगह भूत का डेरा,
तो आज भी याद
होगा।।
गाँव तुमने छोड़ा
गाँव तुम्हे नहीं छोड़ा,
गाँव आज भी तेरी
पहचान है
जहाँ बसती तेरी जान है
गाँव की मिट्टी का ख्याल
वह बीते बाल्य काल
तो आज भी याद होगा।।
गाँव की सोंधी मिट्टी में कूदना उछलना
खेत की आली पर गिरना - फिसलना
बचपन की शरारतें और गली गली मटरगस्ती
बेफ़िक्र दुनिया से, मुफ़्त में मस्ती।।
तो आज भी याद होगा !
कबड्डी चिकनी और गुलीडंडा
छिपकर खेलना कौड़ी और ताश
पिता चाचा से पकडे जाने का अहसास।
तो आज भी याद होगा !
पर होनेवाली तकरार
फिर बैर भाव को भूलना
दूसरे दिन फिर एक जगह जुटना।
तो आज भी याद होगा !
गमछी में कसकर बांधना
पोटली को बार बार पटकना
फिर धूनी को दमभर चखना,
कंटीली लकड़ियों पर उसे जलाना
इसे कहते थे होरहा लगाना
मुह हाथ दोनों काला कर खाना,
जानते हुए भी दुष्परिणाम
वही पिता जी की डाँट
माँ की प्यार भरी चांट
फिर भरपेट खाना भात,
जो चार आज भी है खड़ा
भीषण गर्मी में वही मिलती थीँ छाँव
मानव और पशु का दुपहरिया का ठाँव
यह तो आज भी याद होगा।
पश्चिम में पीपल के पेड़
रात और गर्मी दुपरहिया का पहर
दोनों जगहों पर जाने में डर
एक जगह सांप का बसेरा
दूसरी जगह भूत का डेरा,
गाँव तुम्हे नहीं छोड़ा,
जहाँ बसती तेरी जान है
गाँव की मिट्टी का ख्याल
वह बीते बाल्य काल
तो आज भी याद होगा।।