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कविता: डर (डॉ. राजेश सिंह, कल्याणपुर, कानपुर, उत्तर प्रदेश)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “डॉ. राजेश सिंह की एक कविता  जिसका शीर्षक है “डर”:

 
तुम डर जाते हो ,
हां तुम डरते हो
तुम डरें हुये हो
इसीलिए हमेशा
डराये जाते हो।
 
यही तुम्हारी फितरत है
यही दुश्मन की ताकत है
तुम डरते हो बात बात पर
यही तुम्हारी आफत है।
 
तुम डरते हो
हवा की सरसराहट से,
बारिश की बूंदों से
सूरज की गरमाहट से।
 
हां तुम डरते हो
सब कुछ सहते हो,
शीत,और ताप,
पर पहले डरते हो।
 
तुम जंग में जूझते हो
शिद्दत से लड़ते हो,
पर हमेशा जंग के
नाम से,तुम डरते हो।
 
तुम डरते हो,
पत्थर की मूर्तियों से,
और लड़ते हो
महायोद्धाओं से।
 
तुम डरते हो
अपने आप से,
तुम डरते हो
पुण्य और पाप से।
 
तुम डरते हो
इसलिए नहीं कि
तुम कमजोर हो,
तुम डरते हो
इसलिए  कि
तुम डर जाते हो।
 
तुम्हारे भीतर एक डर
छुपा कर बैठाया गया है
तुम निडर हो
इसीलिए तुम्हे डराया गया है।
 
तुम कमजोर हो,
सदियों से तुम्हें
ये बताया गया है,
तुम डरें हुये रहो
इसीलिये
तुम्हे डराया गया है।
 
तुम डरना छोड़ दो
हां तुम डरना छोड़ दो,
तुम महा वीर हो
मर मर कर जीना छोड़ दो।
 
तुम डरते रहोगे
जब तक
डराये जाओगे
तब तक।
 
क्योंकि तुम्हारे डर से ही
सत्ता का व्यापार चलता है,
और तुम्हारे डर से ही
भगवान का संसार चलाता है।