पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “राघवेंद्र सिंह” की महाभारत में कृष्ण और कर्ण संवाद का परिदृश्य दिखाती एक कविता जिसका शीर्षक है “कह रहे हैं केशव सुनो कर्ण ....”:
जब शुरू हुआ विध्वंश युद्ध।
धरती कांँपी हुआ काल क्रुद्ध।
बजा बिगुल भीषण रण का।
दुर्दशा देखती मुख प्रण का।
रथ कर्ण चढ़ाकर वो लाए।
कहते हैं केशव कर्ण सुनो।
उचित अनुचित क्या आज चुनो।
यह प्रश्न उठा है मन में आज।
दिग्गज जो थे सब हुए मौन।
पहचानो कर्ण तुम स्वयं कौन।
बतलाऊंँ तुझको सत्य बात।
तू स्वयं कुन्ती का है जाया।
यह सत्य आज है बतलाया।
मन कोमल कर न रख द्वेष।
जो हुआ उसे तू तुरत भूल।
राधेय जरा तू जान मूल।
हो गया कर्ण क्षण वह अधीर।
अब प्रश्न चिन्ह तुम ना खींचो।
मुझको ममता से न सींचो।
यदुनंदन के सम्मुख गंभीर।
क्यों मुझपर प्रश्न उठाते हो।
अनुचित मुझको ठहराते हो।
तुम आज बताओ अपना मत।
मांँ ने जन्मा क्यों ठुकराया।
सरिता धारा में मुझे बहलाया।
अश्रु बूंँद आंँख से न गिरती।
यदि जन्मा था मृत्यु देती।
अभिशापित जीवन क्यों देती।
राधा मांँ से राधेय हुआ।
धिक्कार मुझे उस माता पर।
कुंठित हूंँ भाग्य विधाता पर।
या केशव अब मैं मौन रहूंँ।
बन सके गुरु न द्रोण मेरे।
अनभिज्ञ हुए दृष्टिकोण मेरे।
है सूत पुत्र का नाम सहा।
धूलों में पड़ा मैं पड़ा रहा।
पर शांत स्वर से खड़ा रहा।
सोचा जग में चमकेगा नाम।
जब हुआ ज्ञात उन्हें कुंती पुत्र।
अभिशाप दिया होकर के क्रुद्ध।
सब भूले तू जो सीखा होगा।
क्षत्रिय होना यहांँ हुआ पाप।
धरती अम्बर सब गए कांँप।
तुम स्वयं मेरा जीवन ये चुनो।
एक भूलवश मुझसे हुआ पाप।
गौ हत्या का मुझे लगा श्राप।
कितने अपमानित हैं ये राज।
द्रौपदी ने स्वयंवर ठान लिया।
कह सूत मुझे अपमान दिया।
अभिशापित हूंँ ये मान लिया।
तब दुर्योधन ने सम्मान दिया।
मुझे अंगराज का दान दिया।
राजाओं सा यशगान किया।
मुझको नव जन्म मिला जैसे।
मेरा रोम रोम हो खिला जैसे।
क्या निर्णय मेरा सही कहो।
तन दुर्योधन का हुआ सकल।
ये मेरा पौरुष, मेरा भुज बल।
समझाया केशव ने प्राणी को।
मैं भी तो बड़ा अभागा हूंँ।
न पता कहांँ मैं जागा हूंँ।
हुआ मात पिता से अलगाव।
न मुझे मिला कुछ शिक्षा में।
मृत्यु खड़ी थी प्रतीक्षा में।
मुझको भी गया था तब त्यागा।
तुम बने प्रेम से थे राधेय।
मैं बना प्रेम से यशोदेय।
मुझे गाय मिलीं तुम्हें धनुष बान।
कितनी ही विफलताएंँ जग में।
तुम बने रहो नित उस पग में।
निष्पक्ष यहांँ सब चूर्ण होगा।
यदि सत्य असत्य का नहीं ज्ञान।
मन का विवेक सब गया जान।
अनुचित बातों का रख न भय।
तुझे अपने चाहिए या दुर्योधन।
तुम वही करो जो कहे मन।
किंतु डिगे न अब मेरा रव।
दुर्योधन का विश्वास हूंँ मैं।
मित्रता की गहरी आस हूंँ मैं।
मित्रता ही अब मैं निभाऊंँगा।
परिणाम युद्ध का जो भी हो।
अब आगे केशव बात कहो।
मित्रता निभाने सुवर्ण चला।
केशव बोले तुम नर महान
मित्रता तुम्हारी है पहचान।