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कविता: शोर (सुनीता कुमारी, पूर्णियाँ, बिहार)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “सुनीता कुमारी की एक कविता  जिसका शीर्षक है “शोर”:

 
अरे ;
यह शोर कैसा ?
क्या यह मंदिर के ,
घंटे की मधुर ध्वनी है ?
या मस्जिद में,
पाक अजान पढ़ी जा रही है?
या विवाह समारोह में,
स्त्रियां का मधुर गायन कर रही है?
 
अरे ;
यह चोर कैसा ?
क्या बच्चे गली में कबड्डी खेल रहे हैं?
या खेल खेल में,
आपस में लड़ाई कर रहे हैं ?
या बच्चे गली में ,
क्रिकेट खेल रहे हैं ।
या आपस में जोर-जोर से बातें कर रहे हैं?
 
अरे;
यह शोर  कैसा,
क्या कोई फेरीवाला गठरी लिए,
गली में आवाज दे रहा है ?
या सब्जी  वाला ,
सब्जी बेच रहा है?
या स्त्रियों को मोहित करने वाला
साड़ी बेच रहा है ?
 
अरे ;
यह शोर कैसा?
इस सामाजिक शोर में तो,
कोई त्रुटि नहीं ,
फिर ये कानों में चुभनेवाला
शोर कैसा ??
 
ओह;
अरे;
यह तो कृत्रिम ध्वनि यंत्रों का शोर है।
बड़े-बड़े गाजे-बाजे वाद्य यंत्रों का शोर है।
सड़कों पर दौड़ती कतारबद्ध
गाड़ियो का शोर है ।
अंधभक्ति के दिखावे का शोर है ।
सामरिक शक्ति को,
समारोह में,
समाज को दिखाने का शोर है ?
समारोह किसी एक के घर में?
शोर का भोज हर एक के घर में ?
क्या मनुष्य शोर का भूखा है?
या दिखावे में आकर ,
दिखावे का भूखा है ?
 
शोर के शोर में ,
यह यह याद नही रहता?
किसी के घर बुजुर्गों बीमार है ।
किसी के घर नवजात शिशु की,
देखभाल है ।
किसी के बच्चों का इंतिहान है ।
किसी के घर स्त्रियां काम करके
आराम करने के लिए परेशान हैं ।
कोई तो बंद करो इस कृत्रिम शोर को,
को कोई तो जागो,
इस कृत्रिम अंधभक्त से।
कोई तो आवाज उठाओ
इस दिखावे के शोर से।