पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार “ज्ञानचंद मर्मज्ञ” की
एक कविता जिसका
शीर्षक है “भोर की प्रस्तावना”:
है अँधेरी रात कोहरा भी घना है,
और उजालों की तरफ
जाना मना है।
पूर्णिमा को फिर
अमावस छल रही है,
रौशनी बैसाखियों
पर चल रही
है।
हर तरफ है भीड़ बस परछाइयों की ,
अस्मिता किरणों
की बेबस जल रही है।
कर रहे हैं जुगनुएं दिन की समीक्षा ,
जाने कैसी
भोर की प्रस्तावना
है।
रेशमी मनुहार काले
पड़ गए हैं ,
पाँव में दीपक के
छाले पड़ गए हैं।
वर्जनाएँ फिर रहीं स्वछंद होकर,
सोच पर धुएँ के
जाले पड़
गए हैं।
आदमी की चेतना है दीप्तिगामी,
सत्य है पर
झूठ की संभावना है।
झील में डूबा हुआ
है चाँद झिलमिल,
सब्र के आकाश का
सूरज है बोझिल।
सूखती संवेदनाओं के भरोसे,
हो गया है पीर से
संवाद मुश्किल।
छोड़ आये हैं बहुत पीछे बहुत कुछ,
जो बचा है बच सके
ये कामना है।
है अँधेरी रात कोहरा भी घना है,
हर तरफ है भीड़ बस परछाइयों की ,
कर रहे हैं जुगनुएं दिन की समीक्षा ,
वर्जनाएँ फिर रहीं स्वछंद होकर,
आदमी की चेतना है दीप्तिगामी,
सूखती संवेदनाओं के भरोसे,
छोड़ आये हैं बहुत पीछे बहुत कुछ,