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कहानी: श्रम शिला (संध्या पाण्डेय, हरदा, मध्य प्रदेश)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “संध्या पाण्डेय की एक कहानी  जिसका शीर्षक है “श्रम शिला":
 
         शाम का धुंधलका छाने लगा है। सामने के सार्वजनिक बगीचे से बच्चों की आवाजें आने लगी हैं।
आठ _दस बच्चे कभी रेलगाड़ी तो कभी नाव तो कभी हवाई जहाज बनाकर खेलते रहते हैं । हरी भरी दूब में बच्चों को लुढ़कना, दौड़ना अच्छा लगता है।उन्हें देखकर  मन को बड़ा सुकून आता है।
    नाम से तो नहीं जानती परंतु फिर भी उन्हें पहचान लेती हूँ।
   कोई लंबा ,गोरा ,काला, सांवला बड़ी चोटी वाली, कटे बाल वाली बस यही पहचान है उन बच्चों की।          
        कितनी उमंग और उत्साह से भरे होते हैं यह बच्चे। महाविनाश में भी आशा की किरण दिखते हैं।
दादी ये मुझे मार रहा है _मैं कहाँ मार रहा हूं ?
__दादी  ये मुझे झाड़ पर नहीं चढ़ने दे रहा  !
__यह लड़की है गिर जाएगी दादी!
           और बस  यह लड़की है !   इसलिए   नहीं   कर पाएगी।  यह सुनना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता ! तभी तो मै लड़कियों का पक्ष लेने बगीचे मे चली जाती।
      वहाँ लम्बी चोटी वाली लड़की को देखकर मुझे मेरी शैल याद  आ जाती।
      शैल  की जिंदगी बड़ी ही कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ रही थी। तुरंत ही उसे फोन लगा लेती हूँ।  शैल  से  फोन  पर बात करके मैं अपनी बालकनी में झूले पर आकर बैठती हूं । सुनसान सड़क बड़ी-बड़ी इमारतें जैसे अपने ही भाग्य पर रो रहे हैं। इन सब के पीछे बगीचे से सिर्फ बच्चों का कोलाहल सुनाई दे रहा है। 
           बचपन से ही शैल मेहनती ,होनहार ,चंचल कुशाग्र बुद्धि की लड़की थी।  साथ में थोड़ी जिद्दी भी थी। उसकी हर जिद हमने अपने स्तर से पूरी भी की।  शहर जाकर पढ़ने की जिद ने उसे उच्च शिक्षित भी किया और अच्छी नौकरी भी दिलाई।
     आत्म स्वाभिमानी, दबंग निर्भीक, पढ़ी-लिखी लड़की ने एक ऐसा रिश्ता
जीवनसाथी के रूप में अपने लिए चुना जिसे घर के सभी सदस्यों ने नकार दिया । बस परिवार की मनाही उसकी जिद बन गई और एक रात वो हम सबको छोड़कर अजीत की होने चली गई ।          
    अजीत के पास एक कमरे का घर, एक माँ और एक छोटी सी नौकरी के अलावा बहुत सारी डिग्रियां थी। जाति का सवर्ण होने के कारण  नौकरी बड़ी नहीं  थी। परंतु शैल के लिए उसके दिल में बहुत प्यार और आदर था, यही शैलके लिए बहुत था ।
       विधि का  विधान कुछ अलग ही था। शादी के दो साल बाद ही रेल एक्सीडेंट में अजीत की दोनों टांगे चली गयी। वह जिंदा लाश बन कर रह गए थे। शैल तो घबराकर टूट गयी।
 मैंने उसे समझाया
_ तुम कमजोर नहीं हो! _माँ मुझसे नहीं होगा?
__होगा! बेटी सबकुछ होगा। तुम शैल हो। शिला हो ,पाषाण हो।
    तुम अजीत की देखभाल भी कर सकती हो और अपनी नौकरी भी।
तुम _श्रमशिला हो बेटी- श्रमशिला।
बस फिर क्या था। अजीत, उसकी माँ, घर, परिवार, नौकरी इन सबमें उसने अपने आपको समर्पित कर दिया।
     फिर से तन्मय होकर लग गई थी वह।  नियति के खेल का किसी को पता नहीं होता है। इस बार महामारी के प्रकोप ने अजीत को हमेशा हमेशा के लिए  शैल से छीन लिया।
     गंगाजी में अस्थियों का विसर्जन करते समय वो मुझसे लिपट कर बहुत रोई।
_कहने लगी।
_माँ, अधूरी रह गयी   हमारी कहानी ।
अजीत के पास ना धन संपत्ति, संपदा, स्वास्थ्य और ना ही संतान कुछ भी तो नहीं था। पर वह स्वयं  मेरे पास था  यही बहुत था मेरे लिए।  परंतु अब तो वह भी नहीं है ।मै कैसे जिउँगी!  कैसे रहूँगी।
मैंने उसे छाती से लगाकर  समझाया और कहा __
_चलो एक खिलौना ले लेते हैं !
__क्या करेंगे खिलौने का माँ। घर में कोई बच्चा भी तो नहीं है।
_बेटा  ! ये एक रिवाज है।     इसे निभाना पड़ता है ।
किसी एक के जाने से संसार चक्र रुकता नहीं है। ऐसे ही निरंतर चलते रहता है ।एक अजीत के जाने  से रुक नहीं जाएगा जीवन _पर अकेले चलना बहुत मुश्किल है माँ!
तुम अकेली नहीं हो बेटा ।  __मेरे साथ चलो!
__कहाँ?
__ अतुल्य अनाथ आश्रम !
__वहां पर क्या करूंगी?         
       बेटा वहां पर कुछ ऐसे बच्चे हैं जिनके माता-पिता कोरोना मैं चले गए हैं उन्हीं को लाकर तुम उनके साथ आगे बढ़ो और अपनी अधूरी कहानी को पूरा करो।  गंगा घाट से लिया एक खिलौना और आश्रम के दो सुंदर सलोने खिलौने ने शैल की जिंदगी फिर से पटरी पर ला दी है।