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कविता: मज़दूर की मज़बूरी (मयंक जैन, अहमद बाग, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार मयंक जैन की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मज़दूर की मज़बूरी":

देश की नींव कमजोर हो गई,

हाथों से दो वक़्त की रोटी भी खो गई।

मेहनत कर के बनाता था दूसरों के घर,,

आज अपने ही घर पहुँचने में हालत पसीना-पसीना हो गई।।

 

अब तो आने जाने की सवारी भी लापता हो गयी।

लगता है सारी ट्रेनें, सारी बसे हड़ताल पर हो गयी।

अकेला होता तो कहीं भी रुक जाता,

समस्या तो परिवार के संग होने से हो गई।

 

घर से दूर आने की तो मज़बूरी हो गयी,,

बढ़ती महंगाई देखकर कमाई भी जरूरी हो गई।

खाने पीने की बात होती तो घर से कर लेता,

मेरी बूढ़ी मां बीमार ओर बच्चों की पढ़ाई अधूरी हो गई।

 

बाहर जाकर काम मिला  सुनते ही गाँव में वाह वाह हो गयी।

बच्चों के चेहरे पर खुशी ओर बूढ़ी मां फिर से जवां हो गयी।

दिन रात काम करके जोड़ता हूँ पाई-पाई,

मेहनत के पसीने में सनी कमीज़ इस बात की गवाह हो गई।।

 

इमारत बनी और मजदूर की मजदूरी तैयार हो गयी,

काम करते- करते सुबह से शाम हर बार हो गयी।

रोज कमाना रोज खाना देखकर लगा,

जिंदगी तो अपनी जैसे सदा बाहर हो गई।।

 

लेकिन अचानक से एक खतरनाक वायरस की मार हो गयी,

सारी कमाई एक ही झटके में बेकार हो गई।

जोड़कर रखता भी कैसे जब समस्याएं सारी आपे से बाहर हो गयी।

 

चिंता मुझे मेरे परिवार की सर पे सवार हो गयी,

छोड़कर मुझे अकेला सारी की सारी फैक्ट्रीया फरार हो गयी।

और दिन रुकता भी कैसे इस माहमारी में lockdown की सीमा हद्द से पार हो गयी।।

 

दुनियां को लगता है मजदूर की मजदूरी बेनाम हो गयी,

लौट कर जा रहा हूँ अपने घर, अपनों से मोहब्बत सरे आम हो गयी।

क्यों करते हो कहकर हमें बदनाम,

जहाँ देखों वहाँ मजदूरों की भीड़ तमाम हो गयी।।

 

घर बैठकर बातें बनानी आसान हो गयी,

जिनके बनाये थे हमनें घर वही जनता परेशान हो गयी।

सुरक्षित हो घर में तुम सब,

हम भटकते सड़कों पर छत हमारी खुला आसमान हो गयी।।

 

हज़ारों मिल हम चले दुनियां हमारी बैलगाड़ी की लग़ाम हो गयी,

धूप में तपती सड़कें पैरो में पड़े छालो के नाम हो गयी।

प्रभू का नाम लेकर चल दिये हम सब,

तपस्या इतनी कि लगा जैसे यात्रा हमारी चारों धाम हो गयी।।

 

हम नहीं देते दोष कि इन सबकी जिम्मेदार सरकार हो गयी,

देखकर रास्ते में लोगों का प्यार यह बात स्वीकार हो गयी।

रखते हैं सभी एक दूसरे का ख्याल,

जियो ओर जीने दो की हर जगह जय जयकार हो गयी।।