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कृष्णभक्ति के छन्द (घनाक्षरी कवित्त) :: रविकान्त सनाढ्य, भीलवाड़ा, राजस्थान

 



आज तो परम लघु रूप धरि लीनो आप, 
पीछै तो अकास को अमित बिस्तार है ।
यहि एक अचरज अगुन पुकारै कोई, 
कोई बतरावै तुम्हैं गुन को अगार है ।
माया के निधान,लोक- लोकन विलास तेरो, 
जगत् के कण- कण तेरो ही प्रसार है।
कहै रविकंत, सार तू ही है अनादि ब्रह्म,
दुनी तो प्रपंचमय, परम असार है ।।


पीत-पट  वारै प्रभु, साँवरै तिहारी छवि, 
नित नयो रूप लेके मोहि अति भावै है ।
आपको  स्वरूप है अनूप औ हृदयग्राही, 
मन को अनंद मेरो बढ़ि- बढ़ि जावै है ।
पीरी- पीरी गोल पाग, मुगता की लड़ी संग,
खूब जँच रही,छटा और ही बनावै है ।
कहै रविकंत, बलिहारी तो पै जाऊँ स्याम,
धन्य- धन्य होवै जो भी प्यार तेरो पावै है ।।


इन्द्रधनुषी है छटा, मुतियन- माल अटा, 
आज का स्वरूप तो रुचिर मुग्धकारी है ।
गिरिवरधारी, मेरे मुरली- बजैया तुम, 
नील-घन- आभ तेरी श्याम सुखकारी है ।
विहँस के देखो नंदलाल कछू मेरी ओर 
बिरद तुम्हारो तो महान उपकारी है । 
सबद नहीं हैं पास, रूप क्या बयान करूँ,
छवि नित नई , रविक॔त बलिहारी है ।।