पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राघवेंद्र सिंह की एक कविता जिसका शीर्षक है “प्रकृति का सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत”:
प्रकृति की अनुपम धुली में प्रकृति सा ही बीज जन्मा।
गिरिशिखर ,तरु अरु सरित सी दृष्टिगत
होती समाँ।
ऊषा किरण,
शीतल
पवन अरु पुष्प को लिखते रहे।
श्वेत वर्णित हिम सदन में भ्रमर बन दिखते रहे ।
केश घुंघराले सृजित थे गौर वर्ण मुखरित छवि।
प्रकृति का सुकुमार कवि था प्रकृति का सुकुमार कवि।
कल्पनाओं का था स्वामी भावनाओं में था बहता।
प्रकृति की उस गोद में वह स्मृति के साथ रहता ।
प्रेम था नदियों से उसको और झरनों में था मन।
ग्रंथि, गुंजन, ग्राम्या बन काव्य रूपी थे जो धन।
रच गए श्रृंगार कविता देख हर्षित है ध्रुवि।
प्रकृति का सुकुमार कवि था प्रकृति का सुकुमार कवि।
स्मरण संध्या का आया वे ले गए नौका विहार ।
शब्द थे सौंदर्य युक्त और काव्य में दिखता श्रृंगार।
पक्षियों की कूक लिख दी बादलों की छवि अनंत।
रागिनी फाल्गुन की अरु नवल हर्षित वह वसंत।
सारथी शब्दों का था वह है नमन करती भुवि।
प्रकृति का सुकुमार कवि था प्रकृति का सुकुमार कवि।
चाँदनी फैली धरा जो दिख रहे जुगनू नवल।
पंत के शब्दों में अगणित वे कुमुद्नी अरु कँवल।
क्या लिखा अद्भुत प्रकृति को शब्द के थे कर्णधार
आलोक श्रोत सौंदर्य के बन गए वे पुष्प हार।
सौम्यता की थे विभूति तेज था जैसे रवि।
प्रकृति का सुकुमार कवि था प्रकृति का सुकुमार कवि।


0 Comments