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कविता: नज़रिया-ए-ज़िदगी (अमृता पांडे, नैनीताल, उत्तराखंड)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार अमृता पांडे की एक कविता  जिसका शीर्षक है “नज़रिया-ए-ज़िदगी”:
 
 
ए जिंदगी ! तुझको मैंने क्या-क्या नहीं कहा
कभी दर्द, कभी बोझ, कभी बेवफा कहा,
कई मुकाम आए, जब नागवार गुजरी है तू
रुसवाई और जुदाई के लम्हों की दास्तां रही है तू
दिल टूट गया था, चिराग-ए -उम्मीद बुझ गया था,
बहुत खोजा पर ज़ख्मों का मरहम ना मिला
कहीं हमसफर मिला, मगर हमराज़, हमजु़बां ना मिला कहीं।
 
दर्द के थपेड़े झेले, आंसुओं का सैलाब रोका
उम्मीद थी जब पार लगने की, तो मांझी दे गया धोखा
आईना देखकर घबरा गई थी मैं जब
अपने चेहरे पर पड़ा दर्द का साया देखा,
उम्मीदों का दामन तार-तार था
मेरा अक्स सोगवार था।
 
मैं हार गई थी, मैं टूट गई थी
लफ़्जों से बयांबाज़ी का ख्याल था झूठा,
तन्हाइयों का दौर यूं बिखरा गया मुझे
शब भर सदा ए दिल रुलाती रही मुझे,
गम का सैलाब दूर तक, कोई आस ना बाकी
आंखों में बस सुरूर था, मगर था नहीं साकी,
उलझन ये जिंदगी की बढ़ी जा रही थी तब
नाउम्मीदी का दौर चले जा रहा था जब।
 
एक आस कोहिनूर सी चमकी थी कहीं दूर,
साहिल-ए-उम्मीद जान कदम उठ गए उस ओर
मुद्दतों तड़प के बाद जाना हमने यह राज़
उम्मीद है एक सिलसिला, थमता नहीं ये साज़,
अब इश्क तुझसे हो गया है जिंदगी मुझे
बादल ए गम नहीं भटका सकेंगे अब मेरे कदम,
जश्न ए जिंदगी को अब किसी की आरजू़ नहीं
मशाले बहार दिल में जला, आसां कर ली मसाफ़त मैंने।

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