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कृष्णभक्ति के छन्द (घनाक्षरी कवित्त) :: रविकान्त सनाढ्य, भीलवाड़ा, राजस्थान



मेरे दिलबर आप इतने सुहाने क्यों हो, 
 योगिराज होके मेरे मन को लुभाते हो ।
 मैं भी भला योग-ध्यान, धारणा  को साधूँ कैसे , 
अह-निस आप मेरे चैन को चुराते हो ।
और कछू भलो नहीं मुझको तो लागे जग, 
सोणे- सोणे मुझको तो आप बस भाते हो ।
बनवारी मेरे ऐ कुँवर- कान्ह मुझको तो , 
बाँसुरी की मीठी तान कान में सुनाते हो ।।


केसर- बरन वेस धरे हैं श्रीनाथ प्रभु , 
आपकी लुनाई का न आदि है न अंत है ।
चाहते हैं  आपको अबाल-वृद्ध, नर -नारी, 
दरस ते पुलकित संत औ महंत हैं।
आपके अधर हैं अनारकली आरकत, 
कुंदकली जैसे शुभ्र मोती जैसे दंत हैं ।
आपको प्रताप दीप्त होय रह्यो भानु सम , 
कीरति से गूँज रहै, दिग् औ दिगंत हैं ।।


द्वारिका के अधिपति, नत हूँ मैं तेरे प्रति,
कहा कहूँ सोभा तेरी अति ही निराली है l
रूप को संभार देखो, झलक-भलक स्याम,
बन्यो- ठन्यो गजब को,हद कर डाली है l
धवल- गुलाबी वेस तो पै ऐसो ओप रह्यो,
निरुपम छवि तेरी बनी मतवाली है l
कहै रविकंत नंदलाल तेरी शान ऐसी,
ऐसो लगै रोज नाथद्वारै में दिवाली है  :