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कविता: मातृभाषा हिन्दी (दिव्या भागवानी “दिव्य श्वेत”, शिवपुरी, मध्य प्रदेश)

 


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार दिव्या भागवानी दिव्य श्वेत की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मातृभाषा हिन्दी":

मैं कुछ लिख रही थी।
अचानक हमारी मातृभाषा हिन्दी।
हिन्दी दिवस पर मुझसे मिलने आई।
 
उसने मुझे गले से लगाया
और मैने उसे जन्मदिन की दी बधाई।
अचानक फूट फूट कर रोने लगी
मैंने बहुत पूछा क्यों रो रही हो।
आज तुम्हारा जन्मदिन है।
लोग जनमदिन पर खुशियाँ मनाते हैं।
और तुम रो रही हो।
बताओ क्या वजह है।
फिर हिंदी ने मुझे  दिल  का हाल सुनाया।
बोली मुझे  कोई प्यार नहीं करता।
सब अपने लबों पर अंग्रेजी को सजा रहे हैं।
दिवाने है अंग्रेजी के, और मुझे भूला रहे हैं।
नन्हे बच्चों को भी गुड मॉर्निंग बोलना सीखा रहे हैं।
मेरा अस्तित्व मिट जायेगा।
मुझे कौन अपनायेगा।
मैं बोली
मैं बोली ऐ! हिंदी तुम मेरी बातें सुनकर सदा मुस्कुराओगी
जैसे तुम्हारे माथे पर बिंदी सदा मुस्कुराती है।
बहुत लोग यहाँ ऐसे भी हैं
जो तुम्हे अपनाते हैं।
तुम्हारे शब्दों की खूबसूरती को पहचानते हैं।
और मैंने तो अपनी पहचान भी तुमसे ही पायी है।
तुमने ही मेरी जिंदगी सजाई हैं।
   हिंदी  अब न रोना कभी।
करती हूँ वादा , मैं तुम्हारी कीमत
सबको बताऊँगी।
बच्चों को हिंदी का पाठ भी पढ़ाऊँगी।
गुड मॉर्निंग नहीं नमस्कार कहना सिखाऊँगी।
ऐ हिंदी मैं तुम्हें सदा चाहूंगी।
ये सोच कर हिंदी मुस्कुरायी।
एक नव उम्मीद उसने पायी,
फिर मुस्कुराकर हिंदी मेरे गले लग गयी।
 

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