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रचनाकार सत्यम घिमिरे "भुपेन्द्र" की "रक्तबीज काव्य शृंखला"
की एक कविता:
|| रक्तबीज_५ ||
महा दुखदायी युग
है आगे बढकर आई
पापो कि बारात से
धरती पर बाढ आई
इन्सान कि भेष मे
वह आता है हर बार
पहन खादी रक्तबीज
साम्राज्य बनता है।
वो अपराधो का
पुलिन्दा बेचता जाता है
रावन जैसे खुनी
हुन्कार भरता जाता है
वो उसी का साथ
देने मे आगे आता है
जिससे वह पैसे
बडी कमा पाता है ।
वो कानुन कि भाषा
मे अपराध करता है
बलात्कारी को
बाईज्जत रिहा करता है
गुन्डो को सलामी
जोर जोर से देता है ,
आम लोगो को नोचता
चुसता जाता है।
हैरान परेसान हर
कोई उसके त्रास से है
वह बडे रक्तबीज
का अत्याचारी चेला है
कमर मे बन्दुक, माथे पर सरकारी टोपी
खादी पहनकर वह
कुर्सी पर बैठा है।
धृतराष्ट्र कि
तहर वह अन्धा नही है
पर वह न्याय केवल
अन्धा करता है
हप्ता वसुली वह
सडक पर करता है
सब्जी वाले से
मुफ्त मे सब्जी लेता है।
एक एक कर वो हर
एक को चुसता है
राजनीति के बुते
वह खुन्खार होता है
जिस कानुन कि
भाषा से वह नियुक्त होता है
उसी कानुन कि
भाषा मे वह अपराधी होता है
जो पैसा देता है
वह खुनी भी छुटता है
रामनामी का धन्धा
वही दिलाता जाता है
आवाज बुलन्द करने
पर जेल मे डालता है
रक्षक नही वह
भक्षक का काम करता है।
मैने देखा है उसे
थाने के बाहर भितर
वो सरकारी
मुलाजिम बनकर बैठा है
मगर काम हमेशा
पैसा लेकर करता है
आदमी उसे पुलिस
के नाम से जानता है।
पुलिस भेरीफिकेसन
वो पैसा लेकर करता है
वह उसी कि रपट
लिखता है जो पैसा देता है
वह विरोधी दल के
जुलुस कुचलता जाता है
बिना अपराध सजा
दिलाना बखुबी जानता है।
वह पडा लिखा
रक्तबीज कि सन्तान है
उसके लिये धाराये
महज एक नाम है
असल मे वह रक्षक
नही भक्षक जैसा बैठा है
वह रक्तबीज का
अजिज साम्राज्य चलाता है।
वह वारेन्ट लेकर
मेरी और दौडेगा जरुर
मेरी मौत पक्की
होगी अखबार पडना जजुर
मौत के डर से नही
बोल रहे है उसके विरुद्ध
इस लिये फैल रहा
है रक्तबीज ....


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